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________________ वन्दनीय नहीं है। अतः, मुनि को इस बात का पूर्णरूपेण ध्यान रखकर अन्तःकरण के परिणामों की शुद्धि रखना चाहिए, क्योंकि सम्पूर्ण शीलांगों से परिपूर्ण श्रमण ही संसार के जन्म-मरण के चक्र को मिटा सकता है, अर्थात् भवविरह को प्राप्त हो सकता है। पंचदश पंचाशक (आलोचना-विधि-पंचाशक) प्रस्तुत पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने आलोचना विधि के विधान का विवरण प्रस्तुत किया है। यदि किसी कारणवश शीलांगों का अतिक्रमण हो जाए तो आलोचना द्वारा शुद्ध होना पड़ता है। इस पंचाशक में हरिभद्र ने यह बताया है कि आलोचना किसे कहते हैं। अपने द्वारा हुई भूलों को गुरु के समक्ष बिना छिपाए सहजता से बताना आलोचना है। आलोचना विधिपूर्वक करना चाहिए, अन्यथा विधि के अभाव में की गई आलोचना जिनाज्ञा के भंग का कारण बनती है। आलोचना का समय दिवस, पक्ष, चातुर्मास, संवत्सर कहा गया है। आलोचना के पाँच द्वारा बताए हैं1. आलोचना के योग्य 2. आलोचना देने के लिए योग्य गुरु 3. आलोचना का क्रम 4. मनोभाव का प्रकाशन और 5. द्रव्यादि की शुद्धि। । आलोचना के योग्य शिष्य के लक्षण ये हैं- कि संविग्न मायारहित, अनाशंसी, आज्ञाकारी, विद्वत्ता, सम्यक् श्रद्धा, आचार स्थित, दृष्कृतपापी, आलोचना के प्रति उत्सुक आदि। इसी प्रकार आचारवान्, व्यवहारकुशल, सम्यक् संयमी, कुशल मतिवान् आदि लक्षण आलोचना देने वाले में होना चाहिए। आलोचना के क्रम में पहले छोटे-छोटे दोष फिर बड़े-बड़े दोषों को कहना चाहिए। गीतार्थ के समक्ष अपने दुष्कृत्यों को भावपूर्वक प्रकट करना चाहिए, यदि भावपूर्वक प्रकट नहीं किए जाते हैं, तो वह भावशल्य है। यदि आलोचना के योग्य अपने पापों की आलोचना लज्जा या भय के कारण गुरु को न बताकर स्वयं ही करता है, तो उसे भावशल्यसहित आलोचना कहा गया है। जिस प्रकार कोई भी व्यक्ति असाध्य रोग जानने पर भी वैद्य के सम्मुख उस रोग को छिपाता है, तो वह असाध्य रोग उसकी मृत्यु का कारण होने से अनिष्टकारी होता है, उसी प्रकार जिसने भावशल्य के कारण अपने दोषों को गुरु के समक्ष नहीं बताया, उसके लिए चारित्ररूपी शरीर में स्थित अविचार-रूपी असाध्य रोग अनन्त भवों में श्रमण का कारण होने से आत्मा के लिए अनिष्टकारी ही है। भावशल्य वाला संसार-अटवी में दीर्घकाल तक भटकता है। तीन लोक के कल्याणमित्र भगवान् ने आलोचना को भाव आरोग्य रूपफल प्रदान करने वाली बताया है, अतः गुरु के समक्ष सरल बनकर अपने दोषों को कह देना चाहिए। जैसे बालक अपनी माँ से अपने कार्य-अकार्य सरलता से बिना छिपाए सब कुछ कह देता है, वैसे ही गुरु के समक्ष, जैसा पाप किया, वैसा ही कह देना चाहिए और गुरु जो आलोचना दे, उसे निःशल्य होकर यथावत् स्वीकार कर लेना चाहिए व जिन दोषों को किया है, फिर से उन दोषों को न करना- यह 44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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