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संकल्प करना चाहिए, यही सम्यक् आलोचना है। अतः, हमेशा भावशुद्धि का प्रयत्न करते रहना चाहिए, क्योंकि भवविरह का, शाश्वत् सुख का यही एक उपाय है। षोडश पंचाशक (प्रायश्चित्त-विधि)
प्रस्तुत पंचाशक में प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन किया गया है।
चित्त-शुद्धि के लिए जिन प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं, अर्थात् जिस उपक्रम से चित्त की शुद्धि होती है, वह प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त को प्राकृत में पायच्छित कहते हैं। पायश्छित शब्द का अर्थ बनता है- जो पाप को छील देता है, पाप को छेद देता है, वही प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त के दस भेद बताए हैं
1. आलोचन 2. प्रतिक्रमण 3. मिश्र 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य और 10. पारांचिक ।
निर्मल चित्त से किया गया प्रायश्चित्त ही वास्तव में प्रायश्चित्त है। श्रद्धावान के प्रायश्चित्त को ही भाव-प्रायश्चित्त कहा गया है। भावरहित प्रायश्चित्त ही द्रव्य-प्रायश्चित्त है, क्योंकि इससे चित्त की शुद्धि नहीं होती है। भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग-नियुक्ति में द्रव्य-घाव के दृष्टान्त से चारित्राचार रूप भाव-घाव की चिकित्सा का हेतु बताकर एक रूपक प्रस्तुत करते हुए कहा है कि प्रायश्चित्त भाव-घाव चिकित्सा-विधि है, उसे सम्यक् प्रकार से जानना चाहिए।
प्रायश्चित्त के दस भेदों में से प्रारम्भ के सात भेदों को व्रण (घाव) के दृष्टान्त से समझाया है और यह कहा है कि पश्चात् के मूल आदि तीनों प्रायश्चित्तों के योग्य अपराध सम्यक्चारित्र के अभाव में ही होते हैं। प्राणवध आदि संकल्पपूर्वक किए गए अपराधों में चारित्र का अभाव हो जाने से उस साधु को महाव्रतों में पुनः स्थापना करना मूल प्रायश्चित्त है। चारित्र के अभाव में किए गए अपराधों का जब तक तप आदि के द्वारा शुद्धि न हो जाए, तब तक महाव्रतों को नहीं देना उपस्थापना-प्रायश्चित्त है। पारांचिकप्रायश्चित्त को लेकर आचार्यों में मतभेद हैं। एक मत के अनुसार- जो साधु प्रमत्त अवस्था के कारण तीर्थंकर आदि किसी की आशातना करने के कारण तीव्र संक्लेश उत्पन्न होने पर जघन्य से छः महीना और उत्कृष्ट से बारह वर्ष तक शास्त्रविधि के अनुसार उपवास आदि तप से अतिचारों की पूर्ण शुद्धि कर लेता है फिर संयम स्वीकार करता है तो वह पारांचिक कहलाता है। अन्यमत के अनुसार जो श्रमण स्वलिंग, चैत्यभेद, जिन प्रवचन का उपघात आदि करने से इह भव और पर भव चारित्र के अयोग्य होते हैं उन्हें पारांचिक कहते हैं। अतः यह मान्यता भी युक्तिसंगत होने से मान्य करने योग्य है।
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