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15. योगप्रयोग-दोष- पादलेपादि द्वारा रूप बनाकर आहार लेना।
16. मूलकर्म-दोष- ब्रह्मचर्य भंग करके या गर्भपात आदि करवाकर भिक्षा लेना। 3. एषणा-दोष- साधु व गृहस्थ- दोनों की तरफ से लगने वाले दोषों को एषणा-दोष कहते हैं। इनके 10 प्रकार हैं
1. शंकित-दोष- आधाकर्म आदि दोषों की सम्भावना होने पर आहार लेना। 2. म्रक्षित-दोष- सचित्त से युक्त आहार को लेना। 3. निक्षिप्त-दोष- सचित्त वस्तु पर रखी हुई भिक्षा को लेना। 4. पिहित-दोष- सचित्त आदि पदार्थों से ढंकी हुई भिक्षा लेना। 5. संवत-दोष- जिसमें सचित्त वस्तु रखी हुई है, उस पात्र को खाली करके उसी पात्र से आहार
लेना। 6. दायक-दोष- अयोग्य व्यक्तियों द्वारा भिक्षा लेना। 7. उन्मिश्र-दोष- सचित्त आहार से मिश्रण आहार को लेना। 8. अपरिणत-दोष- सचित्त आहार लेना। 9. लिप्त-दोष- अखाद्य वस्तु से लिप्त भिक्षा लेना। 10.छर्दित-दोष- देते समय आहार निःसृत हो रहा हो, ऐसा आहार लेना।
उद्गम- 16 उत्पादना -16 एषणा-10 =42 उक्त 42 दोषों से रहित आहार ही शुद्ध आहार है, जो साधुओं के लेने योग्य है।
आचार्य हरिभद्र लिखते हैं कि जो श्रमण इन दोषों को जानकर और आप्त पुरुषों की आज्ञा मानकर सम्पूर्ण दोषों से मुक्त होता है, वही श्रमण संयम-यात्रा से मुक्ति प्राप्त करता है। चतुर्दश पंचाशक (शीलांग-विधान-विधि)
प्रस्तुत पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने शीलांग-विधान-विधि की चर्चा की है। श्रमणों के शील सम्बन्धी प्रसंगों को शीलांग कहा गया है। शीलांग की संख्या अठारह हजार है। भावचारित्र वाले श्रमण अठारह हजार शीलांग रथ के सारथी होते हैं। शीलांगयुक्त श्रमण में ये गुण गुणनफल के रूप में पाए जाते
हैं।
तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रियाँ, दस काय और दस श्रमण धर्म। 3 x 3x 4x 5x 10 x 10 =18000
भावचारित्र वाले में 18000 में से एक भी शीलांग कम नहीं होता है। यदि एक भी शीलांग कम हो, तो सर्व-विरति चारित्र नहीं होता। सर्वविरति-चारित्र नहीं है, तो वह मुनि नहीं है। मुनि नहीं है, तो वह
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