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साधना के लिए, शरीर-निर्वाह के लिए आवश्यक रसों का ग्रहण करना रस-त्याग है, न कि स्वाद के लिए रसों का ग्रहण करना। काय-क्लेश- काया को कष्ट देना, अर्थात् केशलुंचन करनाा अथवा करवाना, विविध आसनों के द्वारा काया को अचंचल करना, शीत-ग्रीष्म आदि ऋतुओं में तटस्थ रहने का प्रयत्न करना, ध्यान के समय मच्छर आदि के काटने पर विचलित न होना कायक्लेश-तप है। संलीनता- संलीनता से तात्पर्य है- संकोच करना, निरोध करना। संकोच करने के चार कार्य हैं- 1. इन्द्रिय-निरोध, 2. कषाय-निरोध, 3. योग-निरोध और 4. विविक्त-चर्या। इन्द्रिय-निरोध- पांचों इन्द्रियों के तेईस विषयों का निरोध करना। कषाय-निरोध- चार कषाय के सोलह भेदों का निरोध करना। योग-निरोध- मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों का निरोध करना। विविक्त-चर्या- स्त्री, पशु, नपुंसक आदि के संयोगों से रहित एकांत स्थान पर रहना।
इन्द्रियों के विषय की मुख्यता के कारण ये छ: तप बाह्य-तप के अन्तर्गत आते हैं। आभ्यन्तर-तप के छ: प्रकारेआभ्यन्तर-तप- पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत तपोविधि-पंचाशक की तीसरी गाथा में आचार्य हरिभद्र आभ्यन्तर-तप के भेदों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं1. प्रायश्चित्त, 2. विनय, 3. वैयावृत्य, 4. स्वाध्याय, 5. ध्यान और 6. उत्सर्ग- ये छ: आभ्यन्तर-तप के प्रकार हैं। 1. प्रायश्चित्त- अपने दुष्कृत्यों को विशुद्ध भाव से गुरु के सम्मुख स्वीकार कर उनसे आलोचना लेकर अपने पापों की विशुद्धि करना प्रायश्चित्त-तप है। 2. विनय- जिससे मान कषाय को दूर किया जाए, अर्थात् जिन-प्रवचन, गुरुजन्, वरिष्ठजन, तपस्वीगण आदि के प्रति सम्मान के भाव रखना, उनकी आज्ञा के 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/3 - पृ. - 334
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