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सत्तर दिन एक स्थान पर रहना जघन्य पर्युषण-कल्प है। पर्युषण-कल्प से तात्पर्य हैकषायों पर विजय प्राप्त करना। आत्मा के निकट रहना, आश्रव से मन को विराम देना, स्वाध्याय एवं ध्यान में रत रहना पर्युषणा-कल्प है। पर्युषणा-कल्प का विशद विवेचन आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की अड़तीसवीं, उनचालीसवीं एवं चालीसवीं गाथाओं में किया है, जो इस प्रकार है
मासकल्प की तरह ही पर्युषणा-कल्प भी प्रथम व अंतिम और मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं के भेद से स्थित और अस्थित- इस प्रकार से दो तरह का है। पर्युषणाकल्प के जघन्य और उत्कृष्ट- ये दो भेद होते हैं।
___ आषाढ़-पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक कुल चार महीने उत्कृ ट पर्युषणाकल्प है और भाद्रपद शुक्ल पंचमी से कार्तिक पूर्णिमा तक कुल सत्तर दिन-रात जघन्य पर्युषणाकल्प है। ये दो भेद स्थविर-कल्पियों के लिए होते हैं, जबकि जिनकल्पियों के लिए तो उत्कृष्ट पर्युषणाकल्प ही होता है।
___मध्यवर्ती तीर्थकरों के साधु यदि दोष न लगे, तो एक ही क्षेत्र में पूर्व-करोड़ वर्षों तक भी रह सकते हैं और दोष लगे, तो एक महीना भी नहीं रह सकते हैं। महाविदेह-क्षेत्र के साधुओं के लिए भी ये कल्प मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं की तरह ही होते हैं। स्थित-अस्थित के विभाग का कारण- कालों में स्थित-अस्थित-विभाग के कारण पूर्व गाथाओं के विवेचन से स्पष्ट होता है कि ये दो विभाग किस अपेक्षा से किए गए हैं ? फिर भी आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की एकतालीसवीं, बयालीसवीं एवं तिरालीसवीं गाथाओं में स्थितास्थित-कल्प के विधान के कारणों को उदाहरणों के साथ स्पष्ट किया है।
यहाँ दस कल्पों का स्थित और अस्थित- यह जो विभाग है, वह तीसरी औषधि के न्याय से भावार्थयुक्त है यादृच्छिक नहीं है। इसके निम्न कारण हैं
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/38, 39, 40 - पृ. - 307
' पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/41, 42, 43 – पृ. - 308
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