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________________ लगता है, जबकि मध्यवर्ती तीर्थकरों के साधुओं के लिए मासकल्प अस्थित है, अर्थात् वे एक महीने से अधिक भी एक स्थान पर रह सकते हैं। उन्हें दोष नहीं लगता है, क्योंकि वे ऋजु -प्राज्ञ होते हैं। प्रथम व अंतिम तीर्थंकरों के साधु मासकल्प का पालन न करें, तो प्रतिबद्धता और लघुता होती है तथा जनोपकार, देशविज्ञान और आज्ञाराधन - ये तीनों नहीं होते हैं। विस्तृत विवेचन निम्न प्रकार से है 1. प्रतिबद्धता - एक ही स्थान पर एक महीने से अधिक रहने पर शय्यातर आदि के प्रति रागभाव उत्पन्न होता है। 2. लघुता लोक में लघुता होती है । 3. जनोपकार नहीं किया जा सकता है । 4. देश-विज्ञान भी नहीं हो सकता है । ये साधु अपना घर छोड़कर दूसरे घर में आसक्त हैं- ऐसी शंका से भिन्न-भिन्न प्रान्तों में रहने वाले लोगों का उपदेशादि देकर उपकार Jain Education International विविध देशों के लौकिक और लोकोत्तर आचार-व्यवहार का ज्ञान 5. आज्ञाराधन गया है, अतः इसका पालन करने से आगम-वचन का पालन होता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के दोष से यदि द्रव्यतः मासकल्प न हो सके, तो शयनभूमि, मकान, गली आदि का परिवर्तन करके भाव से तो इसका पालन अवश्य ही करना चाहिए । कालदोष- दुष्काल आदि के कारण भिक्षा मिलना दुर्लभ हो, तो यह कालदोष है । समय के अनुकूल क्षेत्र न मिले, तो वह क्षेत्रदोष है । क्षेत्रदोष द्रव्यदोष - शरीर के अनुकूल आहारादि न मिले, तो वह द्रव्यदोष है । अस्वस्थता, ज्ञानादि की हानि आदि भावदोष हैं । भावदोष आगम में मासकल्प से अधिक एक स्थान पर रहने का निषेध किया पर्युषणाकल्प दशकल्प (आचार) में पर्युषण - कल्प अन्तिम कल्प है। वर्षावास में चार मास एक स्थान पर रहना उत्कृष्ट पर्युषणाकल्प है। संवत्सरी के पश्चात् 547 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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