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________________ मध्य के जिनों के साधुओं को यदि किसी तरह का दोष लग जाए, तो वे तुरन्त प्रतिक्रमण करके अतिचार की विशुद्धि कर लेते हैं, जिस प्रकार रोग होने के तुरन्त बाद चिकित्सा करें, तो विशेष लाभ होता है। मासकल्प का विवचेन- सामान्यतः, मुनि को आठ मास विहार करते ही रहना चाहिए, फिर भी, मुनि के लिए नवकोटि-विहार का विधान है। विहार की व्यवस्था की अपेक्षा से दो काल हैं- वर्षाऋतु-काल एवं ऋतुबद्ध-काल। एक विहार वर्षा–काल का एवं आठ विहार ऋतुबद्ध-काल के या मासकल्प के माने जाते हैं। शेष काल में साधु को एक मास से अधिक रहने की आज्ञा नहीं है, अर्थात् एक मास से अधिक एक स्थान पर रहने का निषेध किया है। निषेध करने का यही मुख्य कारण है कि धर्म के प्रति रागभाव में वृद्धि न हो, साथ ही गृहस्थ-वर्ग के प्रति भी राग की वृद्धि न हो। एक स्थान पर रहने पर प्रमाद भी बढ़ सकता है, जिससे भिक्षा-सम्बन्धी उद्गम आदि के दोषों के लगने की भी सम्भावना अधिक होगी तथा अन्य क्षेत्रों के लोगों में धर्म का प्रचार भी नहीं होगा, अतः नौकल्पी-विहार के अनुसार साधु को विचरण कर जिनाज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए। ___ प्रश्न यह है कि यदि कहीं लाभ की सम्भावना अधिक हो, अथवा स्वाध्याय आदि की अनुकूलता हो, या किसी की सेवा का प्रसंग हो, तो एक स्थान में अधिक समय तक रहना चाहिए या नहीं ? अपवाद में ऐसे प्रसंगों पर रहने की आज्ञा है, पर एक स्थान में रहते हुए भी आस-पास के स्थानों में दो-चार दिनों के लिए स्थान-परिवर्तन करते रहना चाहिए, जिससे जिनाज्ञा का भी पालन हो। आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की पैंतीसवीं, छत्तीसवीं एवं सैंतीसवीं गाथाओं में मासकल्प का विशद विवेचन इस प्रकार से किया है मासकल्प, अर्थात् चातुर्मास के अतिरिक्त एक स्थान पर एक महीने से अधिक नहीं रहने का आचार। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए मासकल्प स्थित है, अर्थात् वे एक स्थान पर एक मास से अधिक नहीं रह सकते हैं, अन्यथा दोष 'पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-17/35, 36, 37 -पृ. - 306, 307 546 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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