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________________ है। यदि ज्यादा अंतर हो, तो पिता को समझाना चाहिए कि आपका पुत्र बड़ी दीक्षा के योय हो गया है, उसे बड़ी दीक्षा ले लेने दीजिए। इसमें आपका भी उत्कर्ष है । इस प्रकार समझाने पर भी यदि नहीं माने, तो जहाँ तक हो सके, प्रतीक्षा करना चाहिए । दो राजा आदि एक साथ दीक्षा लें, तो जो राजा आचार्य के निकट हो, वह ज्येष्ठ होता है। इस प्रकार, सामायिक - चारित्र (छोटी दीक्षा) और उपसम्पदा ( बड़ी दीक्षा) - दोनों तरह से ज्येष्ठं कल्प सभी (प्रथम, अंतिम और मध्य के तीर्थंकरों के) साधुओं का स्थितकल्प है। प्रतिक्रमण का स्वरूप- दोष लगे या न लगें- दोनों समय प्रतिक्रमण करना प्रथम एवं अंतिम तीर्थकर साधुओं के लिए अनिवार्य है। इन दोनों के लिए प्रतिक्रमण अनिवार्य इसलिए बताया है कि ये ऋजुजड़ और वक्रजड़ - बुद्धि के हैं। ऋजुजड़ वाले स्वयं नहीं समझ पाते कि इसमें पाप है या नहीं एवं वक्रजड़ वाले समझकर भी तर्क करते रहते हैं, अतः उनके लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक बता दिया। इसी आवश्यक - क्रिया का प्रतिपादन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि- पंचाशक की बत्तीसवीं, तैंतीसवीं और चौंतीसवीं गाथाओं में कहा है प्रथम और अंतिम तीर्थकरों के साधुओं को सुबह - शाम छः आवश्यक - रूप प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए । मध्य के तीर्थंकरों के साधुओं को दोष लगे, तब प्रतिक्रमण करना चाहिए । दोष न लगने पर मध्य के तीर्थंकरों के साधुओं को प्रतिक्रमण करना आवश्यक नहीं है । प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं को अतिचार लगे या न लगे, गमन (आहारादि के लिए उपाश्रय से बाहर निकलना), आगमन (आहारादि लेकर उपाश्रय में आना) और विहार (एक गांव से दूसरे गांव को जाना) में ईर्यापथ- प्रतिक्रमण एवं सुबह-शाम षडावश्यकरूप प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि प्रथम जिन के साधु ऋजुड़ और अंतिम जिन के साधु वक्रजड़ होते हैं। 2 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/32, 33, 34 पृ. - 305 Jain Education International For Personal & Private Use Only 545 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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