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उपस्थापना के योग्य जीव का स्वरूप- छेदोपस्थापना-चारित्र के योग्य तब बनता है, जब व्यक्ति के भावों में प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम उभर आए, अर्थात् अहिंसा के भाव भीतर कूट-कूट करके भर जाएं- जिनाज्ञा के प्रति समर्पित हो जाए। जीवन का लक्ष्य बन जाए कि मैं जिनाज्ञा के अनुरूप ही चारित्र-धर्म का पालन करूंगा एवं करवाऊंगा तथा करते हुए का समर्थन करूंगा। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की तीसवीं गाथा में इस विषय का प्रतिपादन करते हैं
आचारांगसूत्र के शस्त्र-परिज्ञा-अध्ययन के सूत्र और अर्थ को पढ़कर और समझकर यह जान ले कि मन, वचन और काय से हिंसादि पापकर्म न करना, न कराना और न अनुमोदन करना। (3 x 3 = 9) इस प्रकार नवकोटि से विशुद्ध छ: जीव निकायों की हिंसा का, अथवा रात्रि-भोजन-निषेध सहित व्रतों का पालन करता हुआ जीव उपस्थापना के योग्य बनता है।
दो की एक साथ उपस्थापना करने पर छोटे-बड़े की व्यवस्था उनकी वय की ज्येष्ठता के आधार पर होती है। वर्तमान में भी यही परम्परा है। यदि दो-तीन संघाटकों में एक साथ अधिक दीक्षाएं हों, तो छोटे-बड़े की व्यवस्था गुरु की संयम-पर्याय की अपेक्षा से की जाती है, जबकि व्यवस्था यह होना चाहिए कि जो चारित्र-पालन में अधिक या कम सुदृढ़ हो, उस अपेक्षा से बड़ा-छोटा किया जाना चाहिए। इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की एकतीसवीं गाथा में' कहते हैं
पिता-पुत्र, राजा-अमात्य, माता-पुत्री, रानी अमात्यपत्नी आदि एक साथ अध्ययन आदि करके बड़ी दीक्षा के योग्य बन जाएं, तो पिता, राजा, माता, रानी आदि ज्येष्ठ होते हैं। पिता-पुत्र आदि में थोड़ा अंतर हो, अर्थात् पुत्र थोड़े दिन पहले योग्य बन जाए, तो भी उसकी बड़ी दीक्षा में थोड़ा विलम्ब करके पिता के योग्य बन जाने पर पिता-पुत्र की बड़ी दीक्षा एक साथ करना चाहिए, अन्यथा पिता आदि को असमाधि होती
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/31 - पृ. - 304
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