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मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधु प्राज्ञ होने के कारण स्त्री को परिग्रह मानकर उसे स्वीकार नहीं करने के कारण उसका भोग भी नहीं करते हैं तथा परिग्रह-विरमण से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।
प्रथम, अंतिम और मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं के लिए पांच-महाव्रतरूप और चार-महाव्रतरूप- इस प्रकार के दो कल्प स्थित हैं, क्योंकि दोनों कल्पों में त्याज्य पाप तो एक समान ही हैं। इस कल्प का पालन आजीवन होता है। पंच-महाव्रतरूप और चार-महाव्रतरूप होने से, दो प्रकार का होने पर भी यह कल्प परमार्थ से तो एक प्रकार का ही है। ज्येष्ठ कल्प का स्वरूप- चारित्र में जो बड़ा है, उसे ही ज्येष्ठ माना जाता है, अर्थात् जिसने दीक्षा पहले ली हो, अर्थात् जिसकी बड़ी दीक्षा पहले हो गई हो, वह ज्येष्ठ की श्रेणी में आता है। निश्चयनय के अनुसार तो जो चारित्र-विधि के पालन में श्रेष्ठ है, वह ज्येष्ठ माना जाना चाहिए, क्योंकि उसकी बड़ी दीक्षा पहले हुई है, परन्तु चारित्र-विधि में श्रेष्ठ नहीं है, तो वह पुनः दीक्षा लेने का अधिकारी है। इस अपेक्षा से चारित्र-विधि वाला ज्येष्ठ हो गया। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की उन्तीसवीं गाथा में ज्येष्ठ कल्प के स्वरूप को स्पष्ट किया है
___महाव्रतों का आरोपण होना उपस्थापना है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं में उपस्थापना से ज्येष्ठता मानी जाती है, अर्थात् जिसकी बड़ी दीक्षा पहले हो, वह ज्येष्ठ माना जाता है। मध्य के तीर्थंकरों के साधुओं की ज्येष्ठता उनके सामायिक-चारित्र के ग्रहण से ही मानी जाती है, किन्तु यह तभी हो सकता है, जब उनका चारित्र अतिचार रहित हो। यदि चारित्र अतिचार सहित हो, तो उनकी बड़ी दीक्षा हो या छोटी दीक्षा, ज्येष्ठता नहीं मानी जाती है, क्योंकि उसकी पूर्व दीक्षा अप्रामाणिक होती है। यदि उसे फिर से दीक्षा या उपसम्पदा दी जाए, तो वह प्रामाणिक मानी जाती
- पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/29 - पृ. - 303 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/30 - पृ. सं. - 304
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