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आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि - पंचाशक की नौवीं एवं दसवीं गाथाओं में किया है ।
शय्यातरपिण्ड आदि शेष चार कल्प मध्यकालीन जिनों के साधुओं के लिए भी स्थित ही होते हैं, इसलिए आगम में, 'चउसु ठिता छसु अठिता - मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधु चार कल्पों में स्थित हैं और छः कल्पों में अस्थित हैं- ऐसा कहा गया है। शय्यातरपिण्ड का त्याग, चार महाव्रतों का पालन, पुरुष की ज्येष्ठता और कृतिकर्म, अर्थात् संयम - पर्याय के क्रम से वंदन-व्यवहार
ये चार मध्य के तीर्थकरों के
ओ लिए भी स्थितकल्प हैं ।
आचेलक का स्वरूपप्रमाणोपेत वस्त्र धारण करना, जीर्ण वस्त्र धारण करना ।
आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि - पंचाशक की ग्यारहवीं, बारहवीं एवं तेरहवीं गाथाओं में आचेलक के स्वरूप को इस प्रकार स्पष्ट किया है
अचेलक दो प्रकार के होते हैं- प्रथम, वस्त्र न हो, तो अचेलक और द्वितीय, अल्प वस्त्र होने पर भी अचेलक । तीर्थंकर परमात्मा इन्द्र - प्रदत्त देवदूण्य के अभाव में ही अचेलक कहे जाते हैं, जबकि शेष साधु-साध्वी अल्प वस्त्र होने पर भी अचेलक कहे जाते हैं ।
प्रथम और अंतिम तीर्थकरों के साधुओं का आचेलक्य-कल्प नग्नतारूप होता है। वे साधु सवस्त्र होने पर भी मात्र खण्डित श्वेत वस्त्र धारण करने के कारण व्यवहार में निर्वस्त्र ही कहे जाते हैं, क्योंकि उनके वस्त्र जैसे होना चाहिए, वैसे नहीं होते हैं।
आचेलक का अर्थ है- वस्त्ररहित होकर रहना, अथवा
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मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं के सलचेक अथवा अलचेक-धर्म होता है। वे ऋजु और बुद्धिमान् होते हैं, इसलिए वे बहुमूल्य और अल्पमूल्य के वस्त्र पहन सकते हैं। वे बहुमूल्य कपड़े पहनें, तब सचेल और जब अल्पमूल्य के कपड़े पहनें, तब अचेल
' पंचाशक - प्रकरण – आ. हरिभद्रसूरि - 17 / 9, 10 पृ. सं. - 296
' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/11, 12, 13 पृ. - 296, 297
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