SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होते हैं। प्रथम जिन के साधु ऋजु और जड़ तथा अंतिम जिन के साधु जड़ और वक्र होते हैं, इसलिए वे बहुमूल्य वस्त्र नहीं पहन सकते हैं। वे श्वेत खण्डित वस्त्र ही पहन सकते हैं, इसलिए उनका चारित्र-धर्म अचेलक है। अल्पमूल्य के फटे कपड़ों के होने पर अचेल ही कहा जाता है। यह बात लोक-व्यवहार और आगमन्याय- इन दोनों से सिद्ध होती है। लोक में जीर्ण वस्त्र को, 'वस्त्र नहीं है'- ऐसा माना जाता है, क्योंकि वह विशिष्ट कार्य का साधक नहीं होता है । आगम-वचन से भी श्वेत जीर्ण वस्त्र होने पर उसे वस्त्रहीन ही समझा जाता है। चेल का अर्थ है- वस्त्र । उसमें 'अ' उपसर्ग लगने पर, वस्त्ररहित - ऐसा अर्थ होता है। पुराने वस्त्र धारण करने पर भी मन से ममत्वरहित होने के कारण वे भाव से अचेलक ही कहे जाते हैं । वस्त्र है और निर्वस्त्र कैसे होंगे ? वस्त्र है, पर ममत्व नहीं है - इस कारण सवस्त्र अचेलक है। वस्त्र का त्याग कर दिया, किन्तु त्याग करने पर भी ममत्व है, तो वह अचेलक होकर भी सचेलक है, क्योंकि वस्त्र का त्याग कर दिया, पर वस्त्र के त्याग का मोह नहीं त्याग सका । औद्देशिक- कल्प का स्वरूप- साधु के निमित्त बनाया गया आहार औद्देशिक कहलाता है। आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि - पंचाशक की चौदहवीं पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं गाथाओं में' औद्देशिक- कल्प के विषय का विवेचन करते हुए कहते हैं स्थित- अस्थित - कल्प के संदर्भ साधु के निमित्त से जो कार्य किया जाए, वह औद्देशिक कहा गया है। औद्देशिक के विषय में प्रथम और अंतिम जिनों के संघ में श्रमणों के लिए ग्राह्य-अग्राह्य का विभाग निम्न प्रकार से है सामान्य रूप से संघ ( साधु-साध्वी के समुदाय) के लिए, अथवा किसी वर्ग-विशेष के साधु-साध्वी के लिए, अथवा किसी एक साधु के निमित्त बनाया गया औद्देशिक आहार प्रथम और अंतिम तीर्थकरों के सभी साधुओं के लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं में जिस संघादि के निमित्त आहार बना हो, वह ' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/14, 15, 16 - पृ. 298 Jain Education International For Personal & Private Use Only 535 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy