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________________ 9. मासकल्प - साधु को नौ कल्पी विहार करना चाहिए, अर्थात् वर्षाऋतु में चार मास और शेष काल में एक माह से अधिक एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए। 10. पर्युषणाकल्प - वर्षा-ऋतु में चार माह एक ही स्थान पर रहना। पंचाशक में अलेचक आदि दस कल्पों का वर्णन कल्पसूत्र के अनुसार' ही प्रवचन-सारोद्धार में भी इन दस कल्पों का वर्णन पंचाशक के अनुसार ही भगवती आराधना में भी इन्हीं दस कल्पों का वर्णन है। अस्थित कल्पों का प्रतिपादन- जिन कल्पों का पालन मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में अनिवार्य नहीं है, वे अनियत या अस्थित कल्प कहलाते हैं, किन्तु ये ही कल्प प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए स्थितकल्प हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें इनका सदा पालन करना होता है। इस बात का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की सातवीं एवं आठवीं गाथाओं में किया है, जो इस प्रकार है मध्यवर्ती बाईस जिनों के साधुओं को आगे कहे जाने वाले छठवें कल्प अस्थित अर्थात् अनियत हैं, क्योंकि वे छ: कल्प सदा आचरणीय नहीं होते हैं, अर्थात् वे साधु इन छ: कल्पों का कभी पालन करते हैं और कभी नहीं भी करते हैं। ये छ: कल्प हैं- 1. आचेलक्य 2. औद्देशिक 3. प्रतिक्रमण 4. राजपिण्ड 5. मासकल्प और 6. पर्युषणाकल्प। ये छ: कल्प मध्यवर्ती जिनों के साधुओं के लिए अस्थित हैं। चार स्थितकल्प- मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं के लिए जो चार स्थितकल्प होते हैं, वे ही चार कल्प प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए भी स्थितकल्प होते हैं, लेकिन यहाँ मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं की अपेक्षा से चार स्थितकल्पों का विवेचन 'कल्पसूत्र - भद्रबाहुस्वामी - पृ. सं. - 3 'प्रवचन सारोद्धार – आ. नेमीचंद्रजी - द्वार- 77-78 - पृ. सं. - 34 भगवती आराधना - 423 4 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि-17/7, 8 - पृ. सं. - 295 533 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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