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स्थितकल्प का स्वरूप- स्थित, अर्थात् नियत। अस्थित, अर्थात् अनियत। कल्प, अर्थात् आचार, अर्थात् साधु-सामाचारी। नियत आचार स्थित-अस्थित कल्प कहलाता है। जिन आचारों का सदा पालन किया जाता है, वे स्थितकल्प कहलाते हैं। ये स्थितकल्प ऋषभदेव एवं भगवान् महावीर की परम्परा के साधुओं के लिए नियमतः करने के लिए होते हैं। यही बात आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि- पंचाशक की दूसरी गाथा में स्पष्ट करते हुए कहते हैं
___सामान्यतः, आचेलक आदि के भेद से कल्प दस प्रकार का होता है। ये कल्प प्रथम और अंतिम जिनों (तीर्थंकरों के काल) के साधुओं के लिए कहे जाते हैं, क्योंकि उन्हें इनका आचरण हमेशा करना होता है। स्थितकल्प, अर्थात् नित्य-मर्यादा। स्थितकल्प का नित्य आचरण करने का कारण- स्थितकल्प प्रथम एवं अंतिम तीर्थकर के शासनकाल के साधुओं के लिए ही नित्य आचरणा करने का विधान है, परन्तु इन दो तीर्थंकरों के शासनकाल में ही ये क्यों किए जाते हैं ? यह एक प्रश्न है। शास्त्रों में इसका कथन है कि इन दो तीर्थंकरों के शासनकाल के जीव क्रमशः जड़बुद्धि एवं तर्कबुद्धि के हैं, अतः इनके लिए इन नियमों का पालन करना अनिवार्य है। स्थितकल्प को तीसरी औषधि के समान बताया गया है। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की तीसरी, चौथी एवं पांचवीं गाथाओं में स्पष्ट करते हैं
यह स्थितकल्प तृतीय औषधि के समान होने के कारण प्रथम और अंतिम जिनों के साधुओं को उनका पालन हमेशा करने की आज्ञा है, क्योंकि उनके लिए यह एकान्ततः हितकर एवं शुभ है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के काल में साधुओं के लिए ही इन दस कल्पों का अनुसरण हमेशा करने की आज्ञा का कारण उनकी सरलता, जड़ता, वक्रता आदि स्वभावगत विशेषताएं हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है
किसी राजा को अपने पुत्र पर अगाध प्रेम था। उसने अपने पुत्र को सदा के लिए रोगमुक्त बनाने के लिए आयुर्वेद में कुशल अनेक वैद्यों को बुलाकर उसका
' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 17/2 - पृ. - 293 * पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 17/3, 4, 5 - पृ. - 294
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 17/6 - पृ. - 295
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