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जैन-परम्परा में साधु के आचार को कल्प कहते हैं।'
भगवती आराधना में इन दस कल्पों की चर्चा आचार्य के आचारत्व-गुण के प्रसंग में की गई है। वहाँ इनका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो इन दस कल्पों में सम्यक् प्रकार से स्थित है, वह आचारवान् है।
अणगार-धर्मामृत में आचार्य के छत्तीस गुणों के अन्तर्गत भी इन दस कल्पों का उल्लेख किया गया है।'
भगवतीसूत्र में कल्प के सामान्य रूप में स्थित और अस्थित- ये दो भेद माने गए हैं। जो चिरकाल में एकरूप होते हैं, वे स्थितकल्प हैं और जो देश, काल एवं परिस्थितिवश बदलते हैं, वे अस्थितकल्प हैं। प्रश्न उपस्थित किया गया कि मध्यवर्ती तीर्थंकर के साधुओं के लिए कल्पों में विकल्प क्यों दिया गया एवं प्रथम तथ अंतिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए क्यों नहीं ?
मध्यवर्ती तीर्थंकर के समय में सामायिक-चारित्र था, जबकि भगवान् ऋषभ एवं भगवान् महावीर के समय में छेदोपस्थापनीय-चारित्र की भी व्यवस्था हो गई। दूसरे, मध्यवर्ती तीर्थंकरों के ऋजुप्राज्ञर्थ, जबकि ऋषभ ऋजुजड़ तथा महावीर के वजड़ हैं, अतः इनके दस ही कल्पों का पालन करना अनिवार्य माना गया, जबकि मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधुओं में मात्र सामायिक-चारित्र होने के कारण उनके कल्प-विधान में अंतर किया गया। स्थितास्थित-कल्पविधि- स्थित-अस्थित-कल्पविधि की चर्चा करने के पूर्व आचार्य हरिभद्र ने प्रथम गाथा में अपने आराध्यश्री के चरणों में वंदन करते हुए कहा है
मैं भगवान् महावीर को नमस्कार करके प्रथम और अंतिम एवं मध्य के बाईस तीर्थंकरों के काल में स्थित-अस्थित आचार का वृहत्कल्प आदि सूत्रों के अनुसार संक्षेप में निरूपण करूंगा।
6 भगवती आराधना - पं कैलाशचंद्र शास्त्री
'अणगार-धर्माऽमृत - पं आशाधर - 9/76 2 भगवती-सूत्र – 25/6/299 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 17/1 - पृ. - 293
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