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________________ इसलिए किया गया है कि फिर भी यह संभव है कि जिसने शुद्ध प्रायाश्चित्त किया है, वह भी पुनः वही दोष कर ले। दूसरे कुछ आचार्यों का कहना है कि दोष की विशुद्धि के लिए आजीवन उस दोष को पुनः नहीं करने का नियम ही शुद्ध प्रायश्चित्त होता है । उपर्युक्त मतांतर का समर्थन- प्रायश्चित्त करने के पश्चात् यदि साधक संयम से नहीं गिरने वाला है, तो उसका प्रायश्चित्त शत-प्रतिशत शुद्ध है। अपने किए हुए अपराधों का प्रायश्चित्त करने के पश्चात् यही संकल्प होना चाहिए कि यह अपराध अब पुनः नहीं करूंगा, क्योंकि पुनः अपराध नहीं करने वाला ही मोक्ष की ओर शीघ्र अग्रसर हो सकता है । यदि वह अपराधों को दोहराता रहा, तो अपराध कम करने का, अथवा नहीं करने का पुरुषार्थ सफल नहीं होगा, अतः शुद्ध प्रायश्चित्त के लिए 'आगे यह दोष नहीं करूंगा' - ऐसा संकल्प साधक को करना ही चाहिए । इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत प्रायश्चित्तविधि पंचाशक की पचासवीं गाथा में' कहते हैं निश्चयनय से संयमस्थान से पतित नहीं होने वाले और भवविरह, अर्थात् मोक्ष के लिए तत्पर साधुओं की अपेक्षा से अन्य आचार्यों का मत भी स्वीकार्य है । पंचाशक - प्रकरण में स्थितास्थित कल्पविधि साधु - सामाचारी को कल्प कहते हैं। कल्प शब्द के आचार-विचार, मर्यादा, नीति, सामाचारी, आचार के नियम, विधि-विधान आदि अनेक अर्थ हैं । 2 जिस प्रवृत्ति से प्रवृत्ति करने वाले संयम - मार्ग में स्थित होते हैं, उस प्रवृत्ति को स्थितकल्प कहते हैं । गया है । ' पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 16/50 - पृ. - 292 2 कल्पसूत्र - कल्पलता - टीका (आ घासीलालजी कृत) का मंगलाचरण - वसुनंदी ने कल्प शब्द का अर्थ विकल्प किया है। वैदिक - परम्परा में आचार के नियमों के लिए कल्प शब्द का प्रयोग किया 3 मूलाचार - टीका - 10/18- पृ - 105 संस्कृत हिंदी कोश आप्टे 'मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन - 5 Jain Education International • डॉ. फूलचंद प्रेमी - पृ - 334 पृ - 67 For Personal & Private Use Only 529 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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