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उत्तर- शास्त्रों में आलोचनादि को प्रायश्चित्तों के विशोधक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऐसा इसलिए कि वे प्रायश्चित्त कहे जाते हैं। प्रायश्चित्त अनुष्ठान की श्रेणी में हैं, किंतु प्रायश्चित्त को विशोध्य मानना उचित नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वे स्वभावतः विशोधक हैं। प्रायश्चित्त अनुष्ठान की श्रेणी में इसलिए हैं कि वे एक क्रिया हैं तथा विशोधक इसीलिए हैं कि वे विशुद्धि का कारण हैं। प्रायश्चित्त स्वयं विशुद्धि नहीं है, वह विशुद्धि का निमित्त है, अतः उन्हें विशोधक कहने में कहीं कोई बाधा नहीं है। आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्त आगमोक्त अनुष्ठान कहते हैं। इसे प्रायश्चित्त पंचाशक की सैंतालीसवीं एवं अड़तालीसवीं गाथाओं में' सिद्ध किया गया है।
प्रायश्चित्त भी आगमोक्त अनुष्ठान ही है। चूंकि आगम में भिक्षाचर्यादि अनुष्ठानों की तरह प्रायश्चित्त का भी विधान है, इसलिए प्रायश्चित्त अन्यथा अन्य अनुष्ठानों से भिन्न नहीं हो सकता है। यदि प्रायश्चित्त आगमोक्त अनुष्ठान न हो, तो वह श द्धिरूप इष्टार्थ का साधक नहीं बन सकता है। प्रायश्चित्त इष्टार्थ का साधक है, अतः आगमोक्त अनुष्ठान है।
प्रायश्चित्त ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्रव्रज्या ही भवान्तर में किए गए पापकर्मों के प्रायश्चित्त-रूप ही है, अर्थात् उनकी शुद्धि का कारण है, अतः प्रव्रज्या-रूप प्रायश्चित्त को भी आगामोक्त अनुष्ठान मानने में कोई दोष नहीं है। भाव से किए गए प्रायश्चित्त का लक्षण- जीवन-चर्या में अपराध होने पर आलोचना आदि प्रायश्चित्त करके जो शुद्ध हो जाता है, वह वास्तव में प्रायश्चित्त का शुभ लक्षण है। फिर भी, अपराध हो सकते हैं, तो पुनः भाव से प्रायश्चित्त करके उनसे शुद्ध होना भी अच्छी तरह से किए गए प्रायश्चित्त का ही लक्षण है। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्तविधि पंचाशक की उन्पचासवीं गाथा में अन्य आचार्यों के मत को भी स्पष्ट करते हैं
जिस दोष का प्रायश्चित्त किया गया हो, उस प्रायः उसे फिर से न किया जाए, यह अच्छी तरह से किए गए प्रायश्चित्त का लक्षण है। यहाँ प्रायः शब्द का प्रयोग
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/47, 48 - पृ. - 291, 292 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/49 - पृ. - 292
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