SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थित अप्रमत्तसंयत साधुओं को उत्कृष्ट से आठ मुहुर्त्त का और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त का स्थितिबंध होता है । छठवें गुणस्थान में स्थित प्रमत्तसंयत साधुओं में जो साधु जान-बूझकर हिंसा आदि की विराधना में प्रवत्ति करते हैं, उनकी कर्मबंध - स्थिति उत्कृष्ट से आठ वर्ष और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की होती है । छद्मस्थ - अवस्था बंध की ही है। यदि बंध है, तो कहीं न कहीं संयम की अपेक्षा है एवं संयम की विराधना के बिना बंध नहीं है, फिर चाहे वह विराधना अल्प है, अथवा अधिक है। उन्हें प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्ध होना आवश्यक है। यही बात आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि - पंचाशक की पैंतालीसवीं गाथा में स्पष्ट की है छद्मस्थ को सभी अवस्थाओं में कर्मबंध होता है। कर्मबंध के द्वारा उसकी संयम की विराधना जानी जा सकती है। छद्मस्थ, अर्थात् संसार में स्थित वीतरागी (बारहवें गुणस्थान वाले) के द्वारा भी द्रव्य से सूक्ष्म विराधना होती है, यह शास्त्रसंगत है। चूंकि छद्मस्थ- वीतरागी को चारों मनोयोग आदि होते हैं- ऐसा शास्त्रों में कहा गया है, इसलिए इन्हें विराधना की शुद्धि करना आवश्यक है। आलोचनादि प्रायश्चित्त सहित, आगमोक्त अनुष्ठान कर, कर्म के अनुबंध का छेदन करने वाले निर्दोष होते हैं । अन्य मतान्तर और उनका निराकरण- आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि की छियालीसवीं गाथा में अन्य मत अनुसार उठाए गए अन्य प्रश्नों का भी समाधान किया है एवं प्रस्तुत प्रश्नों का उत्तर भी दिया है । आगमानुसार अनुष्ठान एवं आलोचना आदि अनुबंध को छेदने का कारण हैं। आलोचनादि को प्रायश्चित्त क्यों कहा गया ? क्योंकि आलोचना आदि प्रायश्चित्त भी तो अनुष्ठान बन गए हैं। भिक्षाचार्य आदि भी आगमोक्त अनुष्ठान हैं, किन्तु ये विशोध्य हैं, विशोधक नहीं। इसी आधार पर यहां यह प्रश्न उठाया जाता है कि प्रायश्चित्त भी आगमोक्त अनुष्ठान होने के कारण विशोध्य होना चाहिए, विशोधक नहीं, जबकि प्रायश्चित्त को विशोधक कहा गया है, ऐसा क्यों ? ' पंचाशक- प्रकरण – आचार्य हरिभद्रसूरि - 16/45 - पृ. - 290 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/46 - पृ. - 291 Jain Education International For Personal & Private Use Only 527 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy