SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपयोगपूर्वक चर्या करने वाले को भी विराधना सम्भव है। तीर्थकर परमात्मा को भी छद्मस्थावस्था में उपयोगपूर्वक विचरते हुए भी गमनागमन की क्रिया का दोष तो लगता ही है, अतः इस प्रश्न का समाधान आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि की उनचालीसवीं गाथा में स्पष्ट किया है । आगम में संसारी - जीवों की सरागावस्था, वीतरागावस्था आदि सभी अवस्थाओं में प्रायः अनेक प्रकार का बन्ध बताया गया है । पुनः, यही बात पूर्वाचार्यों ने भी कही है, फिर भी अयोगावस्था में कर्मबन्ध नहीं होता है, इसलिए इस गाथा में प्रायः शब्द का प्रयोग किया गया है। पूर्वाचार्यों द्वारा कथित अनेक प्रकार के बन्धकर्म आठ हैं, जिनमें आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सभी कर्म हर क्षण बंधते हैं। चौदह गुणस्थानों में सयोगी-केवली तक भी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति के अनुसार बंध होता ही रहता है, अतः बंध के कई कारण हैं। इन अनेक प्रकार के बंधों का आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि - पंचाशक की चालीसवीं से चंवालीसवीं तक की गाथाओं में विस्तार से स्पष्टीकरण किया है सामान्यतया सभी जीव आयुष्य के अतिरिक्त अन्य सात प्रकार के कर्मों का सतत बंध करते रहते हैं। आयुष्य -कर्म का एक भव में एक ही बार ( उसमें भी अतंमुहूर्त्त तक ही) बंध होता है। दसवें सूक्ष्मसम्पराय - गुणस्थान को प्राप्त जीव मोहनीय और आयुष्य-कर्म के अतिरिक्त अन्य छः प्रकार के कर्मों का बंध करते हैं । उपशांतमोह, क्षीणमोह तथा सयोगीकेवली- ये तीन गुणस्थान दो समय के बंध की स्थिति वाले हैं। इनमें एकसातावेदनीय कर्म का बंध होता है। इनमें योग - निमित्तक बंध होता है, कषाय - निमित्तक नहीं, क्योंकि कषायों का सर्वथा उदय नहीं होता है। शैलेषी - अवस्था को प्राप्त जीवों को कोई भी कर्मबंध नहीं होता है । इस प्रकार, प्रकृतिबंध की अपेक्षा से सभी अवस्थाओं में होने वाले बंध का कथन किया गया। अब स्थितिबंध की अपेक्षा से कथन करते हैं। सातवें गुणस्थान में 1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 16/40 से 44 - पृ. 289 Jain Education International For Personal & Private Use Only 526 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy