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________________ आगमोक्त अनुष्ठान कर रहा है, जिसकी चर्या निर्दोष है, उसके लिए प्रायश्चित्त की विधि आवश्यक नहीं है। प्रायश्चित्त तो उन्हें ही दिया जाना चाहिए, जो आगमोक्त चर्या नहीं कर रहे हैं। यदि यहाँ कोई यह प्रश्न करे कि आलोचना आदि प्रायश्चित्त है ही नहीं, तो यह भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि आगमों में आलोचना आदि दस भेद प्रायश्चित्त के ही हैं। इसमें कहीं भी किंचित् भेद नहीं है। इसी मत का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि पंचाशक की छत्तीसवीं एवं सैंतीसवीं गाथाओं में किया है तथा इस मत का समाधान आचार्य हरिभद्र ने अड़तीसवीं गाथा में किया है __ आगमोक्त भिक्षाचर्या आदि अनुष्ठानों में आलोचना, कायोत्सर्ग आदि जो प्रायश्चित्त आगम में कहे गए हैं, वे यहाँ घटित नहीं होते हैं, क्योंकि आगमोक्त भिक्षाचर्या आदि अनुष्ठान निर्दोष होते हैं तथा सदोष अनुष्ठान में ही प्रायश्चित्त होता है, निर्दोष अनुष्ठान में नहीं । तब फिर आगमोक्त शुद्धचर्या करने वाले साधु के लिए प्रतिदिन आलोचनादि प्रायश्चित्त करने का विधान क्यों किया। यदि आप यह कहें कि आगमोक्त अनुष्ठान भी सदोष (अतिचार सहित) होता है, तो फिर शास्त्र में उसका उपदेश क्यों किया गया हैं ? चूंकि शास्त्र में सदोष उपदेश विहीत नहीं है, तो सम्भवतः यह कहा जा सकता है कि आलोचनादि प्रायश्चित्त ही नहीं होते हैं, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आगम में आलोचनादि प्रायश्चित्त के रूप में वर्णित हैं। इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि यहाँ प्रायश्चित्त घटित होता है और यह प्रायश्चित्त आगमोक्त अनुष्ठान सम्बन्धी है। आगमोक्त क्रिया में जो सूक्ष्म विराधना होती है, उसकी शुद्धि के लिए आलोचना आदि प्रायश्चित्त हैं। वस्तुतः, आगमोक्त अनुष्ठान का प्रायश्चित्त नहीं किया जाता है, अपितु उस अनुष्ठान को करते समय जो सूक्ष्म विराधना होती है, उसकी शुद्धि के लिए आलोचनादि प्रायश्चित्त किए जाते हैं। प्रश्न उपस्थित किया गया कि 'उपयोग' अर्थात् सावधानी रखने वाले को भी सूक्ष्म विराधना का दोष क्यों होता है ? 1पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/36, 37 - पृ. - 288 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/38 - पृ. - 288 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/39 - पृ. - 289 525 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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