SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो विधि दी गई है, उसमें यह कहा गया है कि कुछ वर्षों तक संघ से अलग रहकर तप आदि करवाकर पुनः उपस्थापना करवाना अनवस्थाप्य है। सम्भवतः, उमास्वाति की दृष्टि में परिहार का मतलब केवल इतना ही रहा होगा कि उसे कुछ समय तक संघ से अलग रखकर तप आदि के माध्यम से प्रायश्चित्त करवाकर पुनः संघ में सम्मिलित करवा लिया जाता होगा, उसका पुनः महाव्रतारोपण आवश्यक नहीं माना जाता होगा। यही कारण है कि उमास्वाति ने परिहार को पहले एवं उपस्थापना के बाद में रखा। उपस्थापना का तात्पर्य भी यही है कि उसे पुनः दीक्षा दी जाए, अतः तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार, उपस्थापना को ही मूल तथा परिहार को ही अनवस्थाप्य समझना चाहिए। यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ-सूत्र में पारंचिक का कोई उल्लेख नहीं है। परम्परा से यही माना जाता है कि कुछ आचार्यों के अनुसार केवल ज्ञान आदि कुछ बातों के विच्छेद के साथ-साथ पारंचिक-प्रायश्चित्त का भी विच्छेद हो गया था। इसी कारण, आचार्य उमास्वाति ने पारंचिक का उल्लेख नहीं किया है। तप- व्रतों में हुए अतिचारों के लिए कर्म-निर्जरा के लिए तप करना तप-प्रायश्चित्त है। छेद- जन अपराधों को तप के द्वारा शुद्ध न किया जा सके, तब प्रव्रज्या के पाँच दिन आदि क्रम से दीक्षा-पर्याय को कम करना छेद-प्रायश्चित्त है। मूल- ऐसे गहन (प्रगाढ़) अपराध, जिन्हें छेद तक के प्रायश्चित्त से भी शुद्ध न किया जा सके, तो सम्पूर्ण दीक्षा का छेद करके, अर्थात् मूल से छेद करके फिर से महाव्रतारोपण करना मूल-प्रायश्चित्त है। अनवस्थाप्य- अत्यन्त अपराध करने वाला साधु प्रायश्चित्त के रूप में दिया गया तप जब तक न करे, तब तक उसे पुनः महाव्रत नहीं देना, अर्थात् निश्चित अवधि के बाद पुनः महाव्रत देना अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त है। पारंचिक- प्रायश्चित्त या अपराध की अंतिम स्थिति (चरम-सीमा), अर्थात् जिससे अधिक कोई प्रायश्चित्त या अपराध नहीं हो, वह पारंचिक है। इस प्रायश्चित्त में साधु गच्छ से बाहर बारह वर्ष तक भ्रमण करता है। जब वह शासन-प्रभावना का कोई योग्य कार्य करता है, तब उसे पुनः दीक्षा देकर गच्छ में लिया जाता है। 513 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy