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प्रायश्चित्त- आलोचना करने के पश्चात् गुरु के द्वारा प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस प्रायश्चित्त के द्वारा दोषों की विशुद्धि होती है।
प्रायश्चित्तविधि आरम्भ करने के पूर्व आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्तविधिपंचाशक की प्रथम गाथा का' प्रारम्भ भगवान् महावीर को नमस्कार करते हुए कहते हैं
"भगवान् महावीर को प्रणाम करके प्रायश्चित्तविधि के आलोचना आदि दस भेदों को गुरु के उपदेशानुसार मैं संक्षिप्त में कहूँगा।" प्रायश्चित्त के दस प्रकार :
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत प्रायश्चित्तविधि- पंचाशक की दूसरी गाथा में प्रायश्चित्त के दस भेदों का विवरण किया है, जो इस प्रकार है1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. मिश्र 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य और 10. पारान्चिक। आलोचना- गुरु की आज्ञा के बिना किसी भी कार्य आदि को करने पर अपने दोषों को यथातथ्य गुरु को निवेदन करना आलोचना-प्रायश्चित्त है। प्रतिक्रमण- आवश्यक कार्यों में नियमों का अतिक्रमण हो जाने पर मिथ्या दुष्कृत्य करना प्रतिक्रमण–प्रायश्चित्त है। तदुभय- भूल होने पर अपने दोषों को गुरु के समक्ष कहना और चाहे एवं अनचाहे हुई भूलों का प्रतिक्रमण करना तदुभय-प्रायश्चित्त है। विवेक- उद्गम, उत्पादना आदि दोषों से युक्त आहार की जानकारी होने पर दूषित भोजन का त्याग करना विवेक-प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग- गमनागमन, रात्रिशयन आदि प्रसंगों पर कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग-प्रायश्चित्त है। वैसे उपस्थापना ही आगम का मूल प्रायश्चित्त है, किन्तु तत्त्वार्थ-सूत्र में उपस्थापना के पूर्व परिहार को लिया गया है। इससे ऐसा लगता है कि उमास्वाति उपस्थापना की अपेक्षा परिहार को अपेक्षाकृत कम कठोर मानते हैं। आगम के अन्वस्थाप्य-प्रायश्चित्त की
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/1 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/2
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