SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 9.परिहितोद्यत- परोपकार में तत्पर। जो परोपकारी नहीं होता है, वह दूसरों की अवहेलना करता है। 10.सूक्ष्मभावकुशलमति- लौकिक-शास्त्रों का अधिक सूक्ष्मता से ज्ञाता। 11.भावानुमानवान्- दूसरों के चित्त के भावों को अनुमान से जानने वाला गुरु ही आलोचक के भाव के अनुसार प्रायश्चित्त देने में समर्थ होता है। उक्त गुणों से रहित गुरु आलोचनाकर्ता के दोषों की शुद्धि करने में समर्थ नहीं होता है। ठाणांगसूत्र में भी आलोचनायोग्य गुरु का प्रतिपादन किया गया है।' सोमगणि द्वारा रचित पुष्पमालाटीका के अनुसार भी आचारवान, अवधारवान् आदि गुणों से युक्त गुरु ही आलोचना देने योग्य हैं। _ आसेवना और विकट आलोचना- इन दो क्रमों से आलोचना करना चाहिए। जिस क्रम से दोषों का सेवन किया हो, उसी क्रम से दोषों को कहना आसेवना-क्रम कहलाता है। छोटे अतिचारों को पहले कहना और फिर बड़े अतिचारों को कहना, अर्थात् प्रायश्चित्त के क्रम से ज्यों-ज्यों प्रायश्चित्त की वृद्धि हो, त्यों-त्यों दोषों को कहना विकट-आलोचना-श्रम कहलाता है, जैसे- सबसे छोटे अतिचार में 'पंचक' प्रायश्चित्त आता है, उससे बड़े अतिचार में 'दशक; और उससे बड़े अतिचार में 'पंचदशक' प्रायश्चित्त आता है, इसलिए इस क्रम से दोषों का कहना विकटआलोचना-क्रम कहलाता है। गीतार्थ विकटआलोचना-क्रम से ही आलोचना करे, किन्तु जिन्हें आलोचना के प्रायश्चित्त का क्रम ज्ञात नहीं है, वे मुनि आसेवना-क्रम से दोषों की आलोचना करें, क्योंकि आसेवना-क्रम को अच्छी तरह याद रख सकता है। प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में आलोचना करना चाहिए। प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में आलोचना करने से शुभभावों की वृद्धि होती है। संकल्पपूर्वक, प्रमादवश, संयम की रक्षा हेतु यतनापूर्वक, कल्पपूर्वक, (विशिष्ट आलम्बर के द्वारा) सम्भ्रम ठाणांग - म. महावीर - गाथा-5 पुष्पमालाटीका - साधुसोमगणि - गाथा- 352 499 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy