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________________ के कारण, सारासार का विवेक किए बिना, अथवा अयतनापूर्वक- इस प्रकार जिस भाव से जो कार्य किया हो, वह सब गुरु से यथातथ्य (कुछ भी छिपाए बिना) निवेदन कर देना चाहिए। प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में आलोचना करना चाहिए। प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में आलोचना करने से शुभभावों की वृद्धि होती है, क्योंकि शुभ के कारण प्रायः शुभ ही हुआ करते हैं। द्रव्य से दूधयुक्त वृक्षादि प्रशस्त द्रव्य हैं। क्षेत्र में जिनमन्दिर आदि प्रशस्त क्षेत्र हैं, काल में पूर्णिमा आदि शुभ तिथियों के दिन शुभ-काल हैं और भाव में शुभोपयोग (प्रशस्त अध्यवसाय) आदि शुभभाव हैं। शुभ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के योग में प्रायः भावों की शुद्धि होती है, इसलिए शुभ द्रव्यादि का अनुसरण करने का प्रयत्न करना चाहिए- यही तीर्थकरों की आज्ञा है। ज्ञानादि आचार-सम्बन्धी सभी छोटे-बड़े अतिचारों की अच्छी तरह आलोचना करना चाहिए। उस आचार के 1. ज्ञान 2. दर्शन 3. चारित्र 4. तप और 5. वीर्य- ये पाँच भेद हैं। आलोचनीय दोषों का निर्देश - जीवनचर्या में ज्ञात अथवा अज्ञात में, जो भी पाप हो जाए, अपराध हो जाए, भूल हो जाए, फिर वह अपराध छोटा हो या बड़ा, उसकी आलोचना अवश्य करना चाहिए। इस बात का निर्देश आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि-पंचाशक की बाईसवी गाथा में वर्णित करते हैं ज्ञानादि आचार-सम्बन्धी सभी छोटे-बड़े अतिचारों की अच्छी तरह आलोचना करना चाहिए। उस आचार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य- ये पाँच भेद हैं। ज्ञानाचार के भेद- . ज्ञान के आठ आचार हैं। इन आठ आचारों में मलिनता का आना ज्ञानातिचार है, इसी प्रकार दर्शनाचार आदि का स्वरूप है, अतः अतिचारों को जानने के पूर्व आचार को जानना अति आवश्यक है। चूंकि जो आचार को जान लेता है, ' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/22 - पृ. - 265 500 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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