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10.आलोचनाविधि-समुत्सुक- आलोचना की विधि की इच्छा वाला। ऐसा जीव आलोचना में अविधि का त्याग सावधानीपूर्वक करता है। 11.अभिग्रह-आसेवनादि लक्षणों से युक्त- आलोचना की योग्यता के सूचक नियम द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार लेना, दूसरों को दिलाना, लेने वालों की अनुमोदना करना आदि लक्षणों से युक्त होना।
आचारवान्, अवधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी, अपरिश्रावी, परहितोद्यत, सूक्ष्मभावकुशलमति, भावानुमानवान् आलोचनाचार्य (योग्य गुरु) आलोचना देने के योग्य हैं। विशेष : 1.आचारवान्- जिसे ज्ञानाचारादि पाँच आचारों का ज्ञान हो और उनका पालन करता हो, वह आचारवान् है। ऐसे गुरु के वचन ही श्रद्धा करने योग्य होते हैं। 2.अवधारवान- आलोचना करने वाले साधु के द्वारा कहे हुए अपराधों को सुनकर भी अन्य के समक्ष प्रकट नहीं करने वाला गुरु ही अच्छी तरह प्रायश्चित्त दे सकता है। 3.व्यवहारवान्- आगम, श्रुत,, आज्ञा, धारण और जीत- इन पाँच व्यवहारों को जानने वाला गुरु शुद्धि करने में समर्थ होता है। 4.अपव्रीडक- लज्जावश अतिचारों को छिपाने वाले शिष्यों को लज्जारहित बनाने वाला गुरु आलोचक का बहुत बड़ा उपकारी होता है। 5.प्रकुर्वी- प्रकट किए गए अतिचारों का प्रायश्चित्त देकर विशुद्धि कराने वाला। 6.निर्यापक- साधु के प्रायश्चित्त को पूरा कराने वाला) गुरु साधु से बड़े से बड़े प्रायश्चित्त को भी पूरा कराने में समर्थ होता है। 7.अपायदर्शी- इस लोक-सम्बन्धी दुर्भिक्ष और दुर्बलता आदि अनिष्ट को देखने वाला गुरु जीवों को परलोक में दुर्लभबोधि होने आदि की सम्भावना बतलाकर आलोचना का उपकार करता है। 8.अपरिश्रावी- आलोचक के द्वारा कहे हुए दुष्कृत्यों को दूसरों से न कहने वाला। आलोचक के दुष्कृत्य दूसरों से कहना लघुता है।
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