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________________ प्रथम द्वार- 'योग्य' तीर्थकर ने संविग्न (संसार से भयभीत), मायारहित, विद्वान्, कल्पस्थित, अनाशंसी, प्रज्ञापनीय, श्रद्धालु, आज्ञावान्, दुष्कृततापी (अतिचार लग जाने पर पश्चाताप करने वाला), आलोचनाविधि समुत्सुक और अभिग्रह, आसेवना आदि लक्षणों से युक्त साधु को आलोचना करने के योग्य कहा है। 1.संविग्न- (संसारभीरु)- संसारभीरु को ही दुष्कर कार्य करने का भाव होता है। आलोचना दुष्कर कार्य है, अतः आलोचना करने वाले साधु को 'संविग्न' कहा है। 2.मायारहित- मायावी दुष्कृत्यों को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकता है, इसलिए आलोचना करने वाले साधु का मायारहित होना आवश्यक है। 3.विद्वान्- अज्ञानी जीव आलोचनादि के स्वरूप को अच्छी तरह समझ नहीं सकता है, अतः आलोचक को विद्वान् होना चाहिए। 4.कल्पस्थित- स्थविरकल्प, जातकल्प, समाप्तकल्प आदि में स्थित। 5.अनाशंसी- अपने स्वार्थ के लिए आचार्य आदि को अपने अनुकूल करने की आशंसा से रहित । आशंसा वाले जीव की सम्पूर्ण आलोचना नहीं होती, क्योंकि आशंसा भी अतिचार है। 6.प्रज्ञापनीय- जिसे आसानी से समझाया जा सके। अप्रज्ञापनीय, अर्थात् हठी जीव अपनी मान्यता नहीं छोड़ता, इसलिए उसे दुष्कृत्यों से रोका नहीं जा सकता है। 7.श्रद्धालु- गुरु के प्रति श्रद्धावान्, अर्थात् जो गुरु के द्वारा दी गई आलोचना पर श्रद्धा रखता है। 8.आज्ञावान्- आप्तोपदेशानुसार प्रवर्त्तमान। ऐसा जीव प्रायः दुष्कृत्य करता ही नहीं है। 9.दुष्कृततापी- अतिचारों का सेवन होने पर पश्चाताप करने वाला। दुष्कृततापी जीव ही आलोचना करने में समर्थ होता है। 497 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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