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रहता है। इसी प्रकार, जो इन्द्रियों का विजेता है, मोक्षमार्ग का सफल यात्री है, शरीर के मोह-ममत्व से रहित है, वही श्रमण कहलाता है।
___डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, जैन–परम्परा में श्रमण-जीवन का तात्पर्य पापविरति है। श्रमण-जीवन में व्यक्ति को बाह्य-रूप से समस्त पापकारी (हिंसक) प्रवृत्तियों से बचना होता है, साथ ही आन्तरिक रूप से उसे समस्त रागद्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठना होता है। श्रमण-जीवन का तात्पर्य 'श्रमण' शब्द की व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत भाषा में श्रमण के लिए 'समण' शब्द का प्रयोग होता है। 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ होत हैं- 1. श्रमण 2. समन और 3. शमन। 1. श्रमण शब्द श्रम् धातु से बना है। इसका अर्थ है- परिश्रम या प्रयत्न करना, अर्थात् जो व्यक्ति अपने आत्म-विकास के लिए परिश्रम करता है, वह 'श्रमण' है। 2. समन शब्द के मूल में सम् है, जिसका अर्थ है- समत्वभाव । जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह 'श्रमण' कहलाता है। 3. शमन शब्द का अर्थ है- अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, अथवा मन और इन्द्रियों पर संयम रखना, अतः जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है, वह 'श्रमण' है। यही बात आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि-पंचाशक की अड़तीसवीं से चंवालीसवीं तक की गाथाओं में कही है
जिस प्रकार उपर्युक्त आठ गुणों से युक्त सोना वास्तविक सोना है, गुणरहित सोना वास्तविक सोना नहीं है, अपितु वह नकली है, उसी प्रकार गुणरहित साधु वेशमात्र से वास्तविक साधु नहीं होता है।
सोना नहीं होने पर भी, दूसरे द्रव्यों के संयोग से सोना जैसा दिखलाई देने वाला असली सोना नहीं होता है, अपितु वह नकली सोना ही है। नकली सोने को सोने के रंग जैसा किया जाए, तो भी वह असली सोना नहीं होगा, क्योंकि उसमें सोने के विषघाती आदि गुण नहीं हैं।
। सूत्रकृतांग- 1/16/2.
जैन, बोद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक-अध्ययन - डॉ. सागरमल जैन - पृ. -326 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-14/38 से 44 – पृ. - 252, 253, 254
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