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________________ विषघात, रसायन आदि आठ गुणों से युक्त होता है। उक्त परीक्षाओं में से शुद्ध सिद्ध न हुए सोने में उक्त आठ गुण नहीं होते हैं। तात्विक (यथार्थ) साधु में उपर्युक्त कष आदि किस प्रकार घटित होते हैं, इसका विवरण आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि-पंचाशक की सैंतीसवीं गाथा में किया है पारमार्थिक-साधु में कषादि से शुद्धि निम्नवत् होती है- पद्म, शुक्ल आदि विशिष्ट लेश्या कषशुद्धि है, क्योंकि कर्षण से शुद्ध स्वर्ण और शुभ लेश्याओं से युक्त साधु- दोनों ही निर्मल होते हैं। शुद्ध भावों की प्रधानता छेदशुद्धि है। अपकारी के प्रति कृ पा तापशुद्धि है। इस प्रकार, विकाराभाव की दृष्टि से सोने और साधु में समानता है। (जैसे, तापशुद्ध सोना अग्नि में पड़ने पर दोषयुक्त नहीं बनता है, वैसे ही तापशुद्ध साधु अपकारी के प्रति क्रोधादि-रूप विकार वाला नहीं होता है।) बीमारी आदि में अचल बने रहना ताड़नांशुद्धि है। जिस प्रकार ताड़नाशुद्ध सोने में स्वर्ण के आठ गुण होते हैं, उसी प्रकार ताड़नाशुद्ध साधु में शास्त्रोक्त साधु के गुण होते हैं। शास्त्रोक्त गुणधारी साधु वास्तव में सम्यक् साधु की गणना में है। आगमों में श्रमणों की व्याख्या के अनुसार यह स्पष्ट है कि साधु केवल नाम से ही साधु नहीं होता है और न वस्त्र पहनने मात्र से साधु होता है और न शरीर को कृश करने मात्र से ही साधु बनता है। कषायों को कृष करने वाला ही श्रमण होता है। जो साधु सदा श्रम करता है, मन को नियन्त्रण में करने का प्रयास करता है, वास्तव में वह श्रमण है। भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई केवल मस्तक मुड़ा लेने से ही श्रमण नहीं होता है, अपितु जो समत्वयोग की साधना करता है, वही श्रमण होता है। सूत्रकृतांग में श्रमण के जीवन के लिए कहा गया है कि जो साधक शरीर आदि में आसक्ति नही रखता है, किसी प्रकार की सांसारिक-कामना नहीं करता है, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मैथुन और परिग्रह के विकार से रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि जितने भी कर्मादान और आत्म के पतन के हेतु हैं, उन सबसे निवृत्त 18 tic te पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-14/37 - पृ. -251 2 उत्तराध्ययन - म. महावीर-25/31 488 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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