SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैसे पीला सोना विषघात आदि गुणों से युक्त हो, तो ही वास्तविक सोना है, उसी प्रकार शास्त्रोक्त साधुगुणों से युक्त साधु ही वास्तविक साधु है। जैसे विषघात आदि गुणों से रहित नकली सोना स्वर्णिम रंगमात्र से असली सोना नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार साधु के गुणों से रहित साधु भिक्षावृत्ति मात्र से वास्तविक साधु नहीं कहा जा सकता है। जो निश्चय से औदेशिक आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार करता है, वह निश्चय पृथ्वी काय के जीवों की हिंसा करता है। जो जिनभवन आदि के बहाने निश्चयपूर्वक घर बनवाता है तथा जानते हुए भी सचित्त जल पीता है, वह साधु कैसे हो सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं हो सकता है I दूसरे कुछ आचार्य कहते हैं कि साधु के सन्दर्भ में कष आदि क्रमशः आधाकर्म आहार आदि हैं। यहाँ कषादि परीक्षाओं से साधु की परीक्षा करना चाहिए अर्थात् यह देखना चाहिए कि साधु आधाकर्म आहार आदि तो नहीं कर लेता है। जो साधु गुणों से रहित है, वह वास्तविक साधु नहीं होता है, आगम में कहे हुए साधु के गुणों के पालन से वास्तविक साधु हो सकता है । आगमोक्त साधु - गुण अत्यन्त शुद्ध हैं और अत्यन्त शुद्ध साधु-गुणों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए आगम में कहे हुए साधु-गुणों का पालन करके ही वास्तविक साधु बना जा सकता है। प्रस्तुत विषय का उपसंहार आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत शीलांगविधानविधि—पंचाशक की पैंतालीसवीं गाथा में शीलांग के वर्णन को पूर्णता प्रदान करने हेतू कथन कर रहे हैं शीलांगों के सन्दर्भ में प्रासंगिक वर्णन यहाँ पूर्ण होता है। अखंडचारित्रयुक्त भावसाधुओं के शीलांग उपर्युक्त रीति से पूर्ण, अर्थात् अठारह हजार में से एक भी कम नहीं होते हैं। शीलांगयुक्त साधुओं को मिलने वाला फल सम्पूर्ण रूप से शीलांगयुक्त भावसाधु धर्म की कोटि में हाने के कारण भव- परम्परा के बीज को जलाकर मोक्ष को 1 पंचाशक - प्रकरण - Jain Education International आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/45 - पृ. - 254 For Personal & Private Use Only 490 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy