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________________ आचार्य हरिभद्र ने भव्य व अभव्य की अपेक्षा से दो प्रकार के जीवों के साथ ही यह भी निर्देशन दिया कि भव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण का अधिकारी है और अभव्य जीव केवल यथाप्रवृत्तिकरण का अधिकारी है। आचार्य हरिभद्र ने यह भी स्पष्ट किया कि कौन-सी वन्दना मोक्ष का निमित्त है। चैत्यवन्दन करने से ही मोक्ष नहीं मिल जाता, अपितु शुद्धतापूर्वक किया गया चैत्यवन्दन ही मोक्ष का द्योतक है। उन्होंने मुद्रा (रुपए) के उदाहरण से वन्दना की तुलना कर वास्तविक वन्दना का विवरण दिया है तथा किसे वन्दना कैसे करनी है- इसका भी मार्गदर्शन दिया है। चतुर्थ पंचाशक चतुर्थ पंचाशक में पूजाविधि बतलाई गई है। इस पंचाशक के अन्तर्गत पूजा का समय, शरीर शुद्धि, पूजा सामग्री, पूजा विधि, पूजा सम्बन्धी स्तुति स्तोत्र तथा प्रणिधानपूजा की निर्दोषता का क्रमशः प्रतिपादन किया गया है। इसमें पूजा का समय प्रातः, मध्याह्न और संध्या का बताया है, फिर भी गृहस्थ-जीवन की आजीविका का ध्यान रखते हुए अपवादमार्ग में सुविधानुसार पूजा करने के समय का भी विवरण दिया गया है। __आचार्य हरिभद्र ने अपवाद से समय की जो छूट दी है, उसमें मूल हेतु यह है कि गृहस्थ परमात्मा की पूजा से वंचित न रह जाए, या समय के प्रतिबन्ध के कारण कहीं आजीविका से दूर न हो जाए। आजीविका के बिना वह दान आदि धर्म-कार्य नहीं कर सकेगा, क्योंकि अर्थ की भी धर्म में आवश्यकता तो रहती ही है। उन्होंने द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि- दोनों पर बल दिया तथा यह भी स्पष्ट किया कि पूजा की सामग्री उत्तम-से-उत्तम हो, अर्थात् परमात्मा की पूजा उत्तम द्रव्यों से करें। पूजा की सामग्री इस प्रकार चढ़ाई जाए कि आने वाला दर्शक भावविभोर हो जाए। पूजा करते समय कोई भी शारीरिक क्रिया न करें, अर्थात् शरीर खुजलाना, नाक-कान साफ करना, नाखून का मैल निकालना आदि क्रियाओं का उन्होंने पूजा के समय निषेध किया है। आचार्य हरिभद्र ने इस प्रसंग पर बताया कि पूजा करते समय पढ़े जाने वाले स्तुति-स्तोत्र आदि का भावार्थ ज्ञात होना चाहिए, इससे भाव शुद्ध होते हैं। भावार्थ नहीं जानने वालों के लिए भी रत्नज्ञानन्याय से भाव शुद्ध होने की चर्चा की है। - आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दन के उपरान्त प्रणिधान (संकल्प) करने की विधि बताई है, जिससे धर्म-कार्य में विध्न नहीं आए व विजय प्राप्त हो। आचार्य ने संकल्प करने की बात बताई, पर इसका 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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