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________________ की वर्षा आदि अष्ट प्रातिहार्य की रचना करते हैं, अतः दीक्षार्थी के स्थल को भी शुद्ध करना चाहिए, क्योंकि बाह्य-शुद्धि का भी प्रभाव अन्तर में व अन्य लोगों पर पड़ता है। आचार्य हरिभद्र बाह्य-कर्मकाण्ड के विरोधी थे, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे बाह्य-क्रिया या एकांत-विरोधी थे। पहली बात, भूमिशुद्धि आदि का बाह्यविधान है, किन्तु यह आवश्यक है, क्योंकि यह न तो कोई सामाजिक बुराई है, न समाज को भ्रान्त बनाने की विधि है। यह गृहस्थ-जीवन की चर्या में बाह्य-शुद्धि की एक व्यवस्था है। दीक्षार्थी दीक्षा के पश्चात् लिए हुए व्रतों का सुदृढ़ता से पालन करता हुआ अपने आपको उत्तर आचरण, तत्त्वज्ञान के अध्ययन तथा गुरु के प्रति भक्ति में निरन्तर वृद्धि करता हुआ मोक्ष की ओर अग्रसर करता है। इस अध्याय के अंत में यही निर्दिष्ट किया गया है कि दीक्षार्थी समभाव की साधना से अंत में सभी कर्मों का अन्त करके सादि-अनन्त सुख प्राप्त करता है। तृतीय पंचाशक इस अध्याय में चैत्यवन्दन-विधि पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही वन्दन की विस्तृत व्याख्या करते हुए वन्दन के तीन विभाग किए हैं- जघन्य वन्दन, मध्यम वन्दन और उत्कृष्ट वन्दन। चैत्यवन्दन के अधिकारी के विषय में बताते हुए इसमें कहा गया है कि चार प्रकार के जीव ही चैत्यवन्दन कर सकते हैंअपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति। इन चार के अतिरिक्त अन्य कोई चैत्यवन्दन का अधिकारी नहीं हैं। आचार्य हरिभद्र ने यहाँ तक कह दिया कि इन चार के अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्यवन्दन का भी अधिकारी नहीं है, क्योंकि द्रव्यवन्दन भी भाववन्दन की योग्यता वाला ही कर सकता है। हालाँकि, अभव्य जीव के लिए संयम ग्रहण करने की चर्चा आती है और अभव्य जीव भी वन्दन की प्रकृति तो करता है, किन्तु भावशून्य होने से ऐसा वास्तविक नहीं है। दूसरे, मात्र बाह्य-क्रिया करने से कोई उसका अधिकारी नहीं हो जाता? यदि अधिकारी नहीं है, तो अभव्य जीव वन्दन की प्रवृत्ति कैसे करता है? इसके लिए समाधान दिया गया है कि द्रव्यवन्दन के भी दो प्रकार हैं- प्रधान और अप्रधान। अप्रधान द्रव्यबन्धन करने वाले का उपयोग चैत्यवन्दन में नहीं जुड़ता है तथा प्रधान द्रव्यवन्दन चैत्यवन्दन के साथ तारतम्य लिए हुए होता है, इस कारण अप्रधान द्रव्य वन्दन करके भी द्रव्यवन्दन का कोई लाभ नहीं होता है। ऐसे द्रव्यवन्दन को महत्व भी नहीं दिया गया है। चैत्यवन्दन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि इससे परमपद की प्राप्ति होती है, क्योंकि वन्दना मोक्ष-प्राप्ति में निमित्तभूत है। आचार्य हरिभद्र ने चैत्यवन्दन करते समय पाँच स्थानों में सजगता बतायी है। चैत्यवन्दन करते समय की क्रियाएं, सूत्रों के पद, अकारादि वर्ण, सूत्रों के अर्थ और जिन प्रतिमा- इन पाँचों के प्रति सजगता आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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