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श्रावक अपने निवास हेतु चयन करें। इसके अतिरिक्त श्रावक के प्रातः करणीय कार्य इस प्रकार हैंप्रातःकाल विवेकपूर्वक जाग्रत होते ही नमस्कार मंत्र का ध्यान करे। मैं अणुव्रती हूँ- ऐसा चिन्तन करे, तत्पश्चात् शारीरिक-क्रियाओं से निवृत्त हो जिन-पूजा शुभभावों के साथ करे । पश्चात्, परमात्मा के सम्मुख चैत्यवन्दन, स्तुति आदि कार्य सम्पन्न कर गुरु चरणों में पहुँचे। गुरुवन्दन कर गुरु के मुखारविन्द से श्रुतशास्त्रों को श्रमण कर परमात्मा की आज्ञा को आत्मसात् करे । पश्चात्, गुरु के स्वास्थ्य के विषय में पृच्छा करते हुए गुरु की आवश्यकता को समझकर औषध आदि का लाभ ले । प्रत्याख्यान करे। जैनाचार के अनुरूप यथासमय भोजन करे । न्याय-नीति से व्यापार करे । व्यवसाय में अपरिग्रह की बुद्धि रहे। शाम को चैत्यवन्दन करे, प्रत्याख्यान करे, प्रतिक्रमण करे। पूरे दिन की चर्या का चिन्तन करे कि स्वयं के द्वारा कहाँ और कब गलती या भूल हुई है। रात्रि में सर्व जीवों से क्षमायाचना करते हुए स्वयं को आसक्ति से दूर रखकर, मोह से विरक्त होकर, शुभचिंतन करते हुए शयन करे ।
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आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि निम्न विधि से श्रावक-धर्म का अनुष्ठान करने वाले श्रावकों को संयम लेने के भाव जाग्रत होते हैं।
द्वितीय पंचाशक
द्वितीय पंचाशक के अन्तर्गत 'जिनदीक्षाविधि' का प्रसंग है। जिनदीक्षाविधि के माध्यम से मुमुक्षुओं के लिए प्रव्रज्या (दीक्षा) -विधान का उल्लेख प्राप्त होता है। इस पंचाशक में जैन दीक्षा की महिमा एवं गरिमा का व्याख्यान किया गया है एवं यह बताया गया है कि दीक्षार्थी को दीक्षा लेने के पूर्व किस प्रकार से अपने परिजन से दीक्षा की आज्ञा लेना चाहिए। दीक्षार्थी अतीत में हुई भूलों के लिए क्षमायाचना कर, भीतर के शल्यों को बाहर फेंककर गुरु चरणों में समभाव की साधना के लिए समर्पित हो जाए, साथ ही यह भी बताया गया है कि दीक्षा के योग्य व अयोग्य कौन है, इसकी परीक्षा सम्पूर्ण रूप से गुरु संघ के समक्ष कर ले। दीक्षा के योग्य अधिकारी उसे समझे, जिसे समत्व की साधना के प्रति अनुराग हो, वीतराग
प्रति श्रद्धा हो, जो गुरु के प्रति समर्पित हो, बाह्य से ही मुण्डित नहीं हो, अन्तर से भी मुण्डित हो, सिर को ही मुण्डित नहीं करे, मन को भी मुण्डित करे। दीक्षा अधिकारी में यह भी गुण होना चाहिए कि वह लोक-विरूद्ध कोई कार्य न करे, जिससे जिन - शासन (जैन-धर्म) की निन्दा । दीक्षा का अधिकारी परनिन्दा, महासत्वशाली पुरुषों का तिरस्कार एवं धार्मिक विधानों का उपहास आदि का सम्पूर्ण रूप से त्याग कर दे
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आचार्य हरिभद्र ने दीक्षा लेने वाले के लिए दीक्षा-स्थल आदि की शुद्धि पर जोर दिया है। उनका यह मानना हो सकता है कि जिस समय तीर्थंकर भी दीक्षा लेते हैं, तो देवगण भूमि की शुद्धि कर सुगन्धित पदार्थों से स्थल को सुगंधित करते हैं तथा समवशरण की रचना के पूर्व शुद्ध जल सिंचन, पुष्पों
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