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________________ उदासीन रहता है, परन्तु आप्तवचनानुसार नहीं चलने वाला अशुद्ध आहार ग्रहण करने की बात होने पर न पश्चाताप करेगा, न मिथ्या दुष्कृत्य करेगा, न उदासीन रहेगा, न अनासक्त रहेगा, न अपनी भूल स्वीकार करेगा, इसलिए एक का अशुद्ध आहार ग्रहण निर्दोष है और दूसरे का दोषपूर्ण है। आहार-निर्दोषिता में कर्मबल कारण बनने पर आपत्ति- पुनः, प्रश्न उपस्थित किया गया कि यदि कर्म के प्रभाव के कारण ही दोषी आहार की प्राप्ति होती है, तो फिर उस आहार को निर्दोष क्यों नहीं माना गया ? इसका समाधान आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि की पैंतालीसवीं गाथा में किया है __ बिना किसी प्रयत्न के केवल कर्म से अशुद्ध आहार का ग्रहण होता है, इसलिए वह निर्दोष है- ऐसा मानने पर मांसाहार करने वाले हिंसकों को कर्मबंध-रूप दोष नहीं लगेगा, क्योंकि यह सिद्ध होता है कि ज्ञानावरणीयादि कर्मों के प्रभाव से हिंसा होती है, इसलिए दोषयुक्त नहीं है, किन्तु यह लोक और आगम के विरुद्ध है, अर्थात् हिंसा और मांसाहार, लोक और सिद्धांत- इन दोनों से बाधित है। निर्दोष भिक्षा की प्राप्ति सम्बन्धी प्रकरण का उपसंहार आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि-पंचाशक की छियालीसवीं गाथा में निर्दोष भिक्षाप्राप्ति के विषय का समाधान करते हुए कह रहें हैं ___ भोजन पकाने के कार्य का आरम्भ तो अपने लिए ही होता है, इसलिए भोजन के समय, इतना साधु के लिए और इतना अपने लिए है- ऐसा संकल्प दूषित होता है, ऐसा मानना चाहिए। पुनः, कुछ आहार के पकाने में ऐसा संकल्प नहीं भी होता है। इसे ज्ञानोपयोग, निमित्तशुद्धि और प्रश्न आदि से जाना जा सकता है। आचार्य हरिभद्र | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/45 – पृ. - 238 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/46 – पृ. - 238 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/47 - पृ. सं. - 238 476 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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