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ने प्रस्तुत प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि की सैंतालीसवीं गाथा में यह स्पष्ट किया है कि उद्गम आदि दोष किनके द्वारा लगते हैं।
उद्गम-दोष गृहस्थ से, उत्पादन-दोष साधु से और ऐषणा-दोष, गृहस्थ और साधु- इन दोनों से होते हैं।उद्गमादि गृहस्थ आदि से क्यों होता है ? इसका विवेचन पूर्व में किया गया है, अब संयोजन आदि भोजन करते समय होने वाले दोष कहे जा रहे हैं, उन्हें भी जानना चाहिए। भोजल-मंडली के पांच दोष- साधु को आहार करते समय ध्यान रखना है कि आहार करते समय कहीं दोष न लग जाए। आहार लाते समय जितना ध्यान रखना है, उससे अधिक आहार करते समय ध्यान रखना है, क्योंकि आहार लेते समय तो रूप, रंग, गंध का ही पता चलता है, पर आहार करते समय रस अर्थात् स्वाद का अनुभव होता है। इस स्थिति में साधक को विशेष रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता है कि कहीं आहार करते समय साधु स्वादु न बन जाए, क्योंकि रसना की भोजन का स्वाद लेने की प्रवृत्ति है और यह रसना का निर्देश संयम को निर्दोष नहीं रहने देता है, अतः साधु जो जैसा आहार लाया, उसे बिना स्वादरुचि के अपनी संयमयात्रा के निर्वाह हेतु उदासीन भाव से अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिए ग्रहण करना चाहिए, जिससे भोजन-मंडली के दोषों से भी बचा जा सकता है। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि-पंचाशक की अड़तालीसवीं एवं उनपचासवीं गाथाओं में भोजन-मंडली के दोषों का विवरण स्पष्ट किया है, जिसे समझकर साधु आचरण में लाने का पुरुषार्थ करे।
संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण- ये पाँच भोजन-मंडली के भोजन करते समय के दोष हैं।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/48, 49 - पृ. - 239
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