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साधु को दान देते समय गृहस्थ का जीवहिंसारूप अप्रशस्त व्यापार से रहित केवल दान-भाव आहार को दूषित नहीं करता है, किन्तु साधु के निमित्त से तैयार किया गया पिण्ड तो गृहस्थ के द्वारा दानभावपूर्वक होने पर भी आज्ञा में रहने वाले साधु को भी जब दूषित करता ही है, तो ऐसा पिण्ड आज्ञा में न रहने वाले साधु को तो दूषित करेगा ही ।
चौंतीसवीं गाथा में अन्य मान्यता के अनुसार जो यह शंका की गई है कि औदेशिक - आहार आदि का त्याग करके विशिष्ट कुलों में भिक्षा हेतु परिभ्रमण भी नहीं जा सकता है, इसको विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिए आचार्य हरिभद्र पिण्डविधानविधि–पंचाशक की बयालीसवीं गाथा में लिखते हैं
कितने ही विशिष्ट लोग तो पुण्य के लिए भी आहार नहीं बनाते हैं, विशेषकर धर्मशास्त्र में कुशल बुद्धि वाले तो और भी नहीं बनाते हैं, इसलिए 'भिक्षा के लिए घूम नहीं सकते हैं- ऐसा कहना अर्थशून्य है, क्योंकि निर्दोष भिक्षा ऐसे लोगों के यहाँ से ही प्राप्त की जा सकती है।
अन्य मान्यता का प्रश्न है कि क्या निर्दोष भिक्षा लेना दुष्कर है ? आचार्य हरिभद्र पिण्डविधानविधि की तिरालीसवीं गाथा में इस प्रश्न का समर्थन करते हुए समाधान देते हैं
यदि आप यह मानते हैं कि असंकल्पितादि भिक्षा प्राप्त करना दुष्कर है, तो यह मान्यता सत्य है, क्योंकि साधु के लिए असंकल्पित आहार ही नहीं, उसके तो सभी आचार दुष्कर हैं। जिस साधु के सभी आचार दुष्कर हैं, उसका निर्दोष भिक्षा प्राप्त करना दुष्कर हो, तो कौन - सी नई बात है ?
1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 13/43 - पृ. सं. - 237
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