________________
आचार्य हरिभद्र द्वारा पिण्डविधानविधि की उनचालीसवीं गाथा में पैंतीसवीं गाथा में उठाए गए प्रश्न 'गृहस्थ पुण्य के लिए ही आहार बनाते हैं - इसका समाधान किया गया है।
जिनके घरों में प्रतिदिन एक ही परिमाण में रसोई बनती है- ऐसे गृहस्थों के घरों में श्रमणों को आहार देकर पुण्य कमाने का ध्येय ही नहीं होता है, अपितु ऐसे लोग साधु को जो आहार दिया जा सके, वही हमारे लिए उचित है- ऐसे भाव वाले होते हैं। वे साधु के लिए अधिक आहार बनाने के भाव से रहित होते हैं और इसलिए आहार दूषित नहीं बनता है।
प्रश्न खड़ा हो सकता है कि यदि गृहस्थ साधु को दान देने के भाव रखता हो, तो दान देने के उस भाव से क्या आहार दूषित नहीं होगा?
दान देने के भावमात्र से आहार दूषित नहीं बनता है, क्योंकि गृहस्थ दान देने के भाव के समय वह कोई आरम्भ की क्रिया नहीं कर रहा होता है, अतः दान देने के भावमात्र से आहार दूषित नहीं होता है। इसकी सिद्धि आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि की चालीसवीं गाथा में' की है
जिस प्रकार केवल ज्ञान की प्राप्ति के भाव के कारण श्रमण द्वारा कोई आरम्भरूप क्रिया नहीं होती है, केवल श्रद्धा का भाव होता है, इसी प्रकार दान के प्रशस्त मानसिक-व्यापार से निर्मित पिण्ड दूषित नहीं होता है। जिस प्रकार दान के समय साधु को वन्दन करने से पिण्ड दूषित नहीं बनता है, उसी प्रकार केवल दान-सम्बन्धी भाव होने से भी पिण्ड दूषित नहीं होता है।
उपर्युक्त विषय का समर्थन आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि पंचाशक की एक्तालीसवीं गाथा में किया है।
। । "
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/38 -
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/39 - 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/40 - 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/41 - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/42 -
وہ یہ کہ وہ مبہ
236
473
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org