________________
यावत्कथिक तपस्वी को अवश्य स्वीकार करना चाहिए, किन्तु उन्हें स्वीकार करने के पहले आचार्य को अपने गच्छ से पूछना चाहिए। इससे सामाचारी भंग नहीं होती है। उपसंहार- महापुरुषों ने श्रमण-वर्ग के लिए श्रमण-धर्म का सुचारु रूप से पालन हो सके, इस हेतू दसविध सामाचारी की संयोजना की है, जिसका वर्णन पंचाशक प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने अड़तालीसवीं गाथा में किया है।
इसी प्रकार दशविध सामाचारी का वर्णन उत्तराध्ययन के अन्तर्गत छब्बीसवें अध्ययन में भी प्राप्त है, जो इस प्रकार है- 1. आवश्यिकी 2. नैषधिकी 3. आपृच्छना 4. प्रतिपृच्छना 5. छन्दना 6. इच्छाकार 7. मिथ्याकार 8. तथाकार 9. अभ्युत्थान एवं 10. उपसम्पदा। यह क्रम पंचाशक से थोड़ा भिन्न है तथा इसमें निमन्त्रणा के स्थान पर अभ्युत्थान-सामाचारी का प्रयोग है, जिसका भावार्थ है कि गुरु-आचार्य अथवा स्थविर के आगमन पर अपने आसन से उठकर सामने जाकर उनका सत्कार करना तथा पधारने की विनती करना अभ्युत्थान-सामाचारी है। सामाचारी का फल- आचार्य हरिभद्र ने सामाचारी-पालन के परिणाम को बताते हुए उन्पचासवीं गाथा में कहा है
चरण-करण (मूलगुण और उत्तरगुण) में उपयोगी इस सामाचारी का अच्छी तरह पालन करने वाले साधु अनेक भवों के संचित कर्मों को क्षीण कर देते हैं।
उत्तराध्ययन के अनुसार, सामाचारी का आचरण करने वाला संसार-सागर से पार हो जाता है।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/48 - पृ. - 219 2 उत्तराध्ययन - म. महावीर - गाथा-2-3-4 - पृ. -436 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/49 - पृ. - 220 * उत्तराध्ययन-सूत्र - म. महावीर-26/53 - पृ. - 454
श्रमण-सर्वस्व - प्र. सज्जनश्री - पृ. - 31 पुव्व गहिएण छंदण णिमंतणा होअगहिएणं आवश्यक-नियुक्ति – श्री भद्रबाहु - 697
450
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org