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2. वैयावृत्य करने वाला हो और वह यावत्कथिक हो और नवागन्तुक भी यावत्कथिक हो, तो दोनों में जो लब्धिसम्पन्न हो, उस आचार्य को अपने पास रखकर वैयावृत्य करना चाहिए और दूसरे को उपाध्याय आदि को सौंप देना चाहिए। 3. यदि दोनों लब्धिसम्पन्न हों, तो जो पहले से पास में हो, उसे अपने पास रखना चाहिए
और नवागन्तुक को उपाध्याय आदि के पास भेज देना चाहिए। 4. यदि नवागन्तुक को उपाध्यायादि के पास जाना स्वीकार्य न हो और पहले वाला उनके पास जाने हेतु सहमत हो, तो पहले वाले को उपाध्यायादि के पास भेजकर नवागन्तुक को अपने पास रखना चाहिए। 5. यदि पहले वाला उपाध्यायादि के पास जाने को तैयार न हो, तो नवागन्तुक को वापस भेज देना चाहिए। 6. पहले वाला यदि यावत्कथिक हो और आगन्तुक इत्वर हो, तो भी इसी प्रकार निर्णय करना चाहिए। इसमें इतना अवश्य हो सकता है कि पहले वाले को प्रेम से समझाकर कहें कि आगन्तुक अल्प समय के लिए आए हुए हैं, इनके रहने तक आराम करें, इस पर भी यदि वह तैयार न हो, तो आगन्तुक को वापस कर देना चाहिए। 7. यदि पहले वाला इत्वर हो और आगन्तुक यावत्कथिक हो, तो पहले वाले को उपाध्यायादि को सौंप देना चाहिए और आगन्तुक को अपने पास रखना चाहिए। 8. यदि दोनों इत्वर हों, तो एक को अपने पास रखना चाहिए और दूसरे को उपाध्यायादि के पास भेज देना चाहिए। तप-सम्बन्धी उपसम्पदा स्वीकारने के विकल्प- तपस्वी भी इत्वर और यावत्कथिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं। मृत्यु के समय आमरण अनशन करने वाला यावत्कथिक है। इत्वर तपस्वी के विकृष्ट और अविकृष्ट- ये दो भेद हैं। अट्ठम आदि तप करने वाला विकृष्ट तपस्वी होता है और छट्ठ तक तप करने वाला अविकृष्ट तपस्वी होता है।
____ दोनों प्रकार के तपस्वियों से आचार्य इस प्रकार कहें- यदि तुम पारणा के समय शिथिल हो जाते हो, तो तप छोड़कर वैयावृत्य आदि में उद्यम करो।
कुछ आचार्यों का कहना है कि विकृष्ट तपस्वी यदि पारणा के समय शिथिल हो जाता हो, तो भी स्वीकार कर लेना चाहिए। मासक्षमण-तप करने वाले या
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