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अपने गण को छोड़कर दूसरे गण में ज्ञानार्जन के लिए जाने की बात तो ठीक है, किन्तु वैयावृत्य और तप के लिए दूसरे गण में क्यों जाना चाहिए ? इसके निम्न कारण हैं(1) अपने गच्छ के साधुओं में आचार का प्रमादरहित पालन न होता हो। (2) अपने गण में दूसरे साधु वैयावृत्य करने वाले हों, जिससे स्वयं को वैयावृत्य करने का लाभ न मिलता हो। (3) अपने गण में दूसरे साधु भी तप करने वाले हो, जिससे स्वयं तप करें, तो सेवा करने वाले न मिलें।
इन कारणों से वैयावृत्य और तप करने के लिए दूसरे गण में जाना चाहिए। चारित्र-उपसम्पदा में अनेक विकल्प- आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की सैंतालीसवीं गाथा के माध्यम से' चारित्र-सम्बन्धी उपसम्पदा के अनेक विकल्पों का विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है।
वैयावृत्य सम्बन्धी तथा विकृष्ट एवं अविकृष्ट तप-सम्बन्धी उपसम्पदा में इत्वर और यावत्कथिक आदि विकल्प करना चाहिए। दूसरे गच्छ से वैयावृत्य करने के लिए आने वाले के इत्वर (अल्पकालिक) या यावत्कथिक (आजीवन)- ये दो विकल्प होते हैं। जिस गच्छ में आया हो, उस गच्छ के आचार्य की वैयावृत्य करने वाला हो या न हो- ऐसे दो विकल्प भी होते हैं। उस गच्छ में आचार्य का वैयावृत्य करने वाला हो, तो इत्वर हो या यावत्कथिक हो- ये दो विकल्प भी हो सकते हैं।
वैयावृत्य में उपसम्पदा स्वीकार करने की विधि निम्नवत है1. आचार्य का वैयावृत्य करने वाला कोई अन्य न हो, तो आगन्तुक इत्वर हो या यावत्कथिक- जो भी हो, स्वीकार करना चाहिए।
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/47 - पृ. - 218
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