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आपका यह कार्य करने में मैं असमर्थ हूँ'- ऐसा कहना चाहिए और यदि कार्य करने की क्षमता हो, तो स्वीकार कर लेना चाहिए, अर्थात् कार्य कर देना चाहिए। दूसरों से कार्य करवाने की स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो इच्छाकार-समाचारी का उपयोग करके कार्य करवाना चाहिए, परन्तु रत्नाधिकार से नहीं करवाना चाहिए, क्योंकि वे पूज्य होते हैं। यदि रत्नाधिक के योग्य कोई कार्य हो, तो उनकी इच्छापूर्वक करवाना चाहिए।
इच्छाकार-समाचारी का पालन करने वाला साधक कभी भी कलह का कारण नहीं बनता है और न स्वयं में कलह उत्पन्न करता है। तीर्थंकरों ने इच्छाकार-समाचारी से परस्पर सद्भाव एवं शान्त रहने की प्रक्रिया बताई है कि यदि साधक इच्छाकार स्वयं के लिए व अन्यों के लिए उपयोग करे, तो किसी को भी एक-दूसरे के लिए असद्भाव उत्पन्न नहीं होगा तथा संयम का पालन सुचारू रूप से आगमानुसार होगा तथा लोक मे भी निन्दा के पात्र नहीं होंगे, साथ ही लोगों में भी संयम की रुचि उत्पन्न होगी और वे संयमार्थियों की अनुमोदना करते रहेंगे, अतः समुदाय का हर साधक आप्तपुरुषों द्वारा प्रतिपादित इच्छाकार-सामाचारी का उपयोग करें। इच्छाकार-समाचारी का फल- प्रस्तुत समाचारी के पालन का परिणाम सुखदायक है। इसमें साधक अत्यन्त आनन्द की अनुभूति स्वयं करता है और दूसरों को करवाता है। सबके मन को जीतने का उसका प्रयास सफल होता है। सभी की दृष्टि में वह आदरणीय एवं कृपापात्र बनता है। सभी उसके साथ रहना चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा मनुष्य ही क्या, देवगण भी करते हैं, अर्थात् इच्छाकारी-समाचारी से साधक सभी के लिए प्रिय बन जाता है, जो जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है, अतः इच्छाचार–सामाचारी का प्रयोग हर कार्य में करना चाहिए।
इसी सन्दर्भ में, आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की सप्तम गाथा में इच्छाकार-सामाचारी का फल प्ररूपित किया है। इस प्रकार, इच्छाकार-सामाचारी का पालने करने में किसी पर बलात्कार नहीं करना चाहिए। इससे आप्तजनों की आज्ञा का पालन होता है। इस आज्ञा-पालन के निम्न लाभ होते हैं1. पराधीनताजनक कर्मों का नाश होता है। 2. उच्च गोत्रकर्म का बन्ध होता है।
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