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3. लोक में जैन-शासन के प्रति लोगों का सम्मान बढ़ता है।' साधुओं की मर्यादा - आचार्य हरिभद्र ने अष्टम गाथा में स्पष्ट किया है कि साधुजन अपनी मर्यादा में रहें। बलात् कोई कार्य करना या करवाना साधु का आचार नहीं है, क्योंकि इससे दूसरों को कष्ट होता है और पराधीनताजनक कर्मों का बन्ध होता है। दूसरों से कार्य करवाने या करने की आवश्यकता होने पर नवदीक्षित एवं रत्नाधिक के प्रति इच्छाकार-सामाचारी का प्रयोग करना चाहिए, जिससे परस्पर कलह, अथवा अप्रीति न हो, फिर भी अपवाद–मार्ग में आज्ञा दी जा सकती है व बल का प्रयोग भी किया जा सकता है। यदि शिष्य किसी भी बात को स्वीकार करने में तैयार न हो, अथवा जिन-सिद्धान्त–विरुद्ध या लोक-विरुद्ध कार्य करता हो, तो ऐसी स्थिति में, अर्थात् अपवादमार्ग में शिष्य को कठोर आदेश दिया जा सकता है- यह जिनाज्ञा है, जिसका वर्णन आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की नौवीं गाथा में करते हैं
___ कल्याण और उपदेश के योग्य साधु को अनुपयोग के कारण स्खलित होने पर उलाहना देना भी उचित है, अर्थात् उसे बलपूर्वक भी संयममार्ग में लाना उचित है। आचार्य हरिभद्र ने आज्ञा एवं बलपूर्वक व्यवहार के साथ भी यह ध्यान रखने का निर्देश दिया है कि इतना अधिक उलाहना भी न दें, जिससे योग्य बनने के स्थान पर अयोग्य बन जाए, साथ ही यह भी बताया गया है कि अयोग्य व्यक्ति को तो उलाहना देना ही नहीं चाहिए। वास्तव में, जो साधक इच्छाकार–सामाचारी के अनुसार परस्पर व्यवहार करता है, तो वह परम शान्ति का अनुभव करता है एवं समुदाय में पूर्ण रूप से शान्ति का वातावरण फैलाता है, जिससे शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। 2. मिथ्याचार–सामाचारी- परस्पर व्यवहार में कहीं भी, किसी भी प्रकार से भूल हो जाए, अथवा संयमाराधना करते हुए किसी भी जीव के साथ अपराध हो जाए, अथवा विराधना हो जाए, तो शीघ्र ही मिथ्या दृष्कृत कर लेना चाहिए, जिससे अपराध नहीं बढ़ते
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/7 - पृ. सं. - 203 - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/8 - पृ. सं. - 204 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/9- पृ. सं. - 204
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