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पवित्रता सुरक्षित रखने के लिए नववाड़ आदि नियमों का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है।
गुरुकुलवास में रहकर प्रतिदिन सूत्र अर्थ का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि गुरु के पास अध्ययन करना ही ग्रहिणी-शिक्षा है तथा प्रतिदिन संयम की क्रियाओं का अभ्यास करना आसेविनी–शिक्षा है। इस प्रकार, इन दोनों शिक्षा को ग्रहण करने के लिए गुरु-सान्निध्य में रहना ही क्षमा आदि दशविधधर्म की आराधना है।
दशधर्म का पालन करने वाले ही सच्चे साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका हैं। इन दशधर्म का पालन करने वाला मोक्ष का वरण शीघ्र करता है।
इन दस साधुधर्म का विशुद्ध रूप से पालन गुरुकुलवास के अभाव में असम्भव है, अतः आचार्य हरिभद्र पंचाशक प्रकरण की बीसवीं गाथा में' लिखते हैं
गुरुकुलवास का त्याग होने पर इन क्षमा आदि दस साधुधर्मों का पालन अच्छी तरह से नहीं हो सकता है, अर्थात् इन धर्मों में पूर्णता प्राप्त नहीं होती है, अतः इन धर्मों के पालन के विषय में सदैव निपुण (चतुर) बुद्धि से चिन्तन करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण में प्रस्तुत अध्ययन की इक्कीसवीं गाथा के अन्तर्गत' गुरुकुलवास के त्याग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
क्षमा आदि गुणों के अभाव में गुरुकुलवास का त्याग स्वतः हो जाता है तथा गुरुकुलवास (गुरुसान्निध्य) के त्याग से ब्रह्मचर्य की गुप्ति नहीं रहती है। ब्रह्मचर्य-गुप्ति से तात्पर्य है- सहवर्ती मुनियों का सहयोग, ब्रह्मचर्य-गुप्ति के अभाव में ब्रह्मचर्य नहीं रह सकता है। इस प्रकार, दूसरे तप-संयम आदि भी मुनियों के सहयोग के अभाव में नहीं रह सकते हैं, अतः इन दशधर्मों को यथारूप रखने के लिए गुरुकुलवास का त्याग नहीं करना चाहिए तथा गुरुकुलवास में रहने के लिए इन दशधर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/20 - पृ. – 189
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/21 -
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/22 - 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/23 -
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