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आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के प्रस्तुत अध्ययन की बाइसवीं गाथा में गुरुकुलवास का महान् लाभ बताते हुए लिखा है
गुरुकुल में वास करने वाला गुरु की सेवा करने से सद्अनुष्ठानों में सहयोगी बनता है, जिससे उसमें कर्म-निर्जरा-रूप महान् लाभ प्राप्त होता है। जिस प्रकार कोई लखपति वणिक् पुत्र अपने धन के बीसवें भाग से भी व्यापार करे, तो उसे बहुत लाभ होता है, उसी प्रकार महान् गुरु की मात्र सेवा से बहुत लाभ होता है।
___यदि गुरुकुल का त्याग कर दिया जाता है, तो महान् लाभ के स्थान पर महान् अनर्थ की प्राप्ति होगी। गुरुकुलवास के त्याग से अनर्थ-प्राप्ति का विवरण आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की तेईसवीं गाथा में प्रस्तुत किया है
गुरुकुलवास का त्याग करने में वैयावृत्य, तप, ज्ञान आदि गुणों का व्याघात होने से दोष लगता है और गुरु की उपासना नहीं करने से संविग्नों को सामाचारी में दक्षता प्राप्त नहीं होती है, इसलिए वह गुरुकुलवासत्यागी सूत्रार्थ-ग्रहण, प्रतिलेखन आदि से लेकर दूसरों को दीक्षा देने तक विविध अनुष्ठानों में विधिरहित प्रवृत्ति करता है, जिससे उसे दोष लगता है।
___ गुरुकुलवास के बिना वह गीतार्थ की योग्यता प्राप्त नहीं कर सकता है। गुरुकुलवास के बिना यदि वह गीतार्थ की तरह प्रवृत्ति भी करता है, तो वह दोष का भागी बनता है। मरीचि ने गुरुकुलवास का त्याग करके ही अपना संसार बढ़ाया, क्योंकि गुरुकुलवास के अभाव में वह उत्सूत्र-प्ररूपणा, अभिमान आदि अनेक दुर्गुणों का स्वामी बन गया था। इसी कारण, कहा गया है कि बुद्धिमान् गुरु का त्याग भूलकर भी न करें। उस गुरु के त्याग का निर्देश अवश्य दिया गया है, जिसमें सम्यक् गुरुगुणों का अभाव हो। जिस गुरु ने गुरु बनने में जिस सम्यक् ज्ञान और सद्अनुष्ठानों की आवश्यकता है, उन्हें स्वीकार नहीं किया है, तो उसे उस गुरु के रूप में स्वीकार न करें और यदि कर लिया हो, तो उस गुरु का यथाविधि शीघ्र त्याग कर देना चाहिए। साथ ही, यह भी निर्देश किया है कि अन्य सद्गुरु की खोज कर गुरु–सान्निध्य अवश्य प्राप्त कर लेना
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