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3. आर्जव- आर्जव का अर्थ है- सरलता। सरलता ही मुक्ति का सोपान है। सरलता को अपनाने के लिए माया-कषाय पर विजय प्राप्त करना होगी। आत्मशुद्धि सरल स्वभाव वालों को ही होती है, अतः सरलता के लिए कपट का त्याग करें। 4. मुक्ति- मुक्ति का अर्थ है- लोभत्याग, अर्थात् संतोष । तृष्णा का त्याग करना ही संतोष है। अच्छी-बुरी, जैसी भी सामग्री प्राप्त हो जाए, या कम-अधिक वस्तु प्राप्त हो, फिर भी संतोष धारण करना मुक्तिधर्म है। 5. तप- अनशन आदि तप के द्वारा निकाचित कर्म का भी क्षय हो जाता है। प्रायः सभी तीर्थंकर परमात्मातप द्वारा ही दीक्षा, कैवल्य व निर्वाण को प्राप्त करते हैं। तप के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति शीघ्र होती है, अतः सभी को अपनी शक्ति छिपाए बिना सम्यक् तप की साधना करना चाहिए। 6. संयम- पृथ्वीकायादि जीवों की रक्षा करना एवं अपनी इन्द्रियों को एवं मन को नियंत्रित रखना संयम है। इन्द्रियों का असंयम चारित्र को निःसार बना देता है, अतः चारित्र-निर्मलता के लिए इन्द्रियों एवं मन का संयम तथा पृथ्वीकायादि जीवों का संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है। 7. सत्य- सत्य बोलना सत्यधर्म है, क्योंकि सत्य बोलने वाले के वचन कभी निरर्थक नहीं होते हैं। असत्य कथन करने वाला संसार में किसी का विश्वासपात्र नहीं बन सकता है, अतः सदा सत्य बोलना चाहिए। 8. शौच- शौच का अर्थ है- भावविशुद्धि या पवित्रता। मन को अच्छे विचारों से पवित्र रखना शौच है। अच्छे विचारों को लाने के लिए उत्तम शास्त्रों का सदैव स्वाध्याय करना चाहिए। मन की पवित्रता के लिए सत्संगति आवश्यक है। 9. आकिंचन्य- आकिंचन्य का अर्थ है- अपरिग्रह, अर्थात् परिग्रह का त्याग। लोभवश वस्तु, पात्र आदि का संग्रह करना पाप है, अतः निस्पृह होकर जीवन जीना आकिंचन्यधर्म
10. ब्रह्मचर्य- इसका अर्थ है- अब्रह्म का त्याग। यह गुण तो सर्व आत्माओं का प्राण है। सम्पूर्ण साधना का आधार इस धर्म की निर्मलता पर निर्भर है। ब्रह्मचर्य की
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