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छेदोपस्थापनीय चारित्र- जिस चारित्र में पूर्व दीक्षा-पर्याय का छेद (समाप्त) कर पांच महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, वह छेदोपस्थापनीय-चारित्र है। छेदोपस्थापनीय-चारित्र दो प्रकार का होता है- सातिचार और निरतिचार। सातिचार- जिस मुनि के अहिंसा आदि मूल गुणों का घात हो चुका हो, उसे पुनः व्रत धारण करवाना सातिचार-छेदोपस्थापनीय-चारित्र है। निरतिचार- इत्वर-सामायिक वाले नवदीक्षित मुनि को पांच महाव्रत आरोपण करवाना, अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाते समय उस तीर्थ-सम्बन्धी महाव्रतों को पुनः ग्रहण करना निरतिचार-छेदोपस्थापनीय है। परिहारविशुद्धि-चारित्र- जिस चारित्र में गण से पृथक रहकर तप-विशेष के द्वारा कर्मों की निर्जरा, अर्थात् आत्मविशुद्धि की जाती हो, वह परिहारविशुद्धि-चारित्र है। सूक्ष्मसम्पराय-चारित्र- संपराय-संसार में परिभ्रमण कराने वाले कषायों में जब मात्र लोभ का सूक्ष्म अंश, अर्थात् देहासक्ति शेष रह जाती है, अर्थात् जिस चारित्र में केवल सूक्ष्म लोभ का उदय हो, वह चारित्र सूक्ष्मसम्पराय-चारित्र है। प्रस्तुत चारित्र के भी दो भेद हैं- विशुद्धयमान और संक्लिश्यमान्।। विशुद्यमान-चारित्र- उपशम–श्रेणी एवं क्षपक श्रेणी से चढ़ने वाले का चारित्र विशुद्धयमान् सूक्ष्मसम्पराय-चारित्र है। संक्लिश्यमान्-चारित्र - उपशम श्रेणी से गिरने वाले का चारित्र संक्लेश्यमान् -सूक्ष्मसम्पराय-चारित्र है। यथाख्यात-चारित्र- यथार्थ-चारित्र, अर्थात् जैसा भगवान् ने कहा है, वैसा ही चारित्र होना यथाख्यात–चारित्र है, जिसे अकषाय-चारित्र भी कह सकते हैं, क्योंकि इस चारित्र में कषाय की चारों चौकड़ी समाप्त हो जाती हैं। यथाख्यात–चारित्र के भी दो भेद होते हैं- छाद्मस्थिक और कैवलिक। छामस्थिक- उपशांतमोह और क्षीणमोह-गुणस्थानवर्ती साधकों का चारित्र छाद्मस्थिक-यथाख्यात-चारित्र कहलाता है। कैवलिक
संयोगी केवली और अयोगी-केवली का चारित्र कैवलिक -यथाख्यात-चारित्र कहलाता है।
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