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________________ संवेगरंगशाला के अनुसार, शरीर के प्रति ममत्वभाव का नहीं होना सांसारिक पदार्थों की इच्छा नहीं करना, विषय, कषायों से उपरत रहना साधुता है। वस्तुतः, जो इन्द्रियों का विजेता है, वही साधु कहलाता है।' मुख्य रूप से चारित्र के दो भेद बताए गए हैं- देशचारित्र और सर्वचारित्र, क्योंकि जो भी तीर्थंकर होते हैं, वे तीर्थ-स्थापना के समय इन दो प्रकार के चारित्रों की ही प्ररूपणा करते हैं। देशचारित्र से जो युक्त है, वह गृहस्थ है और सर्वचारित्र 39°से जो युक्त है, वह साधु है। सर्वचारित्र के पांच प्रकार हैं, जो साधुधर्मविधि पंचाशक की तीसरी और चौथी गाथा में निम्न प्रकार से हैं1. सामायिक-चारित्र 2. छेदोपस्थापन-चारित्र 3. परिहारविशुद्धि-चारित्र 4. सूक्ष्मसम्पराय-चारित्र 5. यथाख्यात-चारित्र। ये पांच प्रकार के चारित्र समस्त जीवलोक में प्रसिद्ध हैं, जिनका आचरण करके साधु परमपद मोक्ष को प्राप्त करते हैं। आगे सर्वचारित्र के इन पांच भेदों का वर्णन किया जा रहा हैसामायिक-चारित्र- स + आय + इक, जिसमें समता का लाभ हो, वह सामायिक है, अर्थात् जिस अनुष्ठान से दर्शन-ज्ञान-चारित्र का लाभ हो, वह सामायिक-चारित्र है। सामायिक-चारित्र का अर्थ है- सर्वसावद्य लोगों से विरत होना। इसके दो भेद हैंइत्वरिक-चारित्र और यावत्कथिक। इत्वरिक का अर्थ है- अल्पकालीन और यावत्कथिक का अर्थ है- यावज्जीवन। इत्वरिक-सामायिक से तात्पर्य है- बड़ी दीक्षा से पूर्व का चारित्र। यह चारित्र भरत एवं ऐरावत-क्षेत्र में प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के समय में होता है। यावत्कथिक-सामायिक यावज्जीवन का चारित्र है। यह चारित्र भरत एवं ऐरावत के मध्य के प्रत्येक तीर्थंकर के काल में एवं महाविदेह क्षेत्र में होता है, क्योंकि वहाँ छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता है। 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/3, 4 - पृ. - 181, 182 404 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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