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________________ कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि जब मन ही गुरु-चरणों में अर्पित कर दिया हो, तो गुरु की आज्ञा का पालन करने में वह पीछे नहीं रह सकेगा। जो गुरु ने कह दिया, वह शिष्य को मान्य रहेगा और वह कहीं भी ऐसा कार्य नहीं करेगा, जो लोक - विरुद्ध हो, अथवा निन्दित हो, या जिनदीक्षा के विरुद्ध हो । अतः, शिष्य की योग्यता उसके मन के समर्पण के भावों से ही जानी जाती है। शिष्य को सर्वप्रथम मन को ही समर्पित कर देना चाहिए । मन समर्पित होते ही गुरु के प्रति अनुराग, भक्तिश्रद्धा का आविर्भाव हो जाएगा, सेवा आदि के गुणों में अभिवृद्धि होगी । मन को समर्पित करने वाला शिष्य दीक्षा के अयोग्य न होने के कारण सर्वविरति का भी अधिकारी हो जाता है एवं सर्वविरति वाला कर्मों का क्षय कर मुक्ति का वरण कर लेता है। पंचाशक - प्रकरण में साधुधर्मविधि आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत साधुधर्मविधि - पंचाशक में सर्वविरति - स्वरूप साधुधर्म का विवेचन करने हेतु सर्वप्रथम गाथा में मंगलाचरण द्वारा भगवान् महावीर को नमस्कार करते हैं मोक्षफल के हेतुभूत सम्यक् परममंगल कल्याणकारी वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके भाव - प्रधान साधुधर्म का संक्षेप में विवरण कर रहें है । यहाँ पर आचार्य ने साधुधर्म को भाव-प्रधान कहा है, जिसका कारण है कि श्रावक-धर्म में द्रव्य की प्रधानता होती है और साधुधर्म में भावों की प्रधानता होती है। इस कारण, साधुधर्म को भाव- प्रधान कहा गया है। साधु का स्वरूप चारित्तजुओ साहू तं आचार्य हरिभद्र के अनुसार, जो चारित्र से युक्त है, वह साधु है । 2 उत्तराध्ययन के अनुसार, जो समत्व की साधना करता है, वह श्रमण है । पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 11/1 - पृ. 181 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/2 - पृ. 181 3 उत्तराध्ययन- म. महावीर - 25/32 4 संवेगरंगशाला - श्री जिनचन्द्रसूरि - गाथा - 7888 Jain Education International For Personal & Private Use Only 403 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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