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________________ इस प्रकार सर्वविरतिरूप चारित्र के प्राप्त होने पर वह भूतकाल में आचरित मिथ्या आचारों की निन्दा करके, उनसे गृर्हा करके, वर्तमान में उन मिथ्या आचारों का सेवन नहीं करके और भविष्य में इन मिथ्याचारों का सेवन नहीं करूंगा- ऐसा प्रत्याख्यान करके दीक्षित आत्मा उत्तरोत्तर विकास करता हुआ जीवन्मुक्ति का अनुभव करते हुए सर्वकर्मों का मूलोच्छेद करके मोक्ष को प्राप्त करता है। आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के द्वितीय पंचाशक जिनदीक्षाविधि के अन्तर्गत सम्यक्त्व से लेकर सर्वविरति तक का विवरण देकर, अन्त में जिनदीक्षाविधि के महत्व का प्रतिपादन करते हुए चंवालीसवीं गाथा में' कहते हैं आगम के अनुसार, इस दीक्षाविधि का चिन्तन करने से भी आत्मा सकृ बन्धक और अपुनर्बन्धक-रूप कदाग्रह का जल्दी ही त्याग करती है। जो जीव यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त हो गया हो, परन्तु ग्रन्थि को नहीं तोड़े और एक बार पुनः कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करें तो वह सकृबन्धक है तथा जो जीव यथाप्रवृत्ति-करण को प्राप्त हो गया हो, लेकिन पुनः उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करे और ग्रन्थियों को तोड़े, तो वह जीव अपुनर्बन्धक है। सुकृबन्धक एवं अपुनर्बन्धक जीवों में जब तक ग्रन्थि-भेद नहीं हुआ है, तब तक कदाग्रह की सम्भावना रहती है, लेकिन अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों में कदाग्रह नहीं होता है। जिनदीक्षाविधि - मेरी दृष्टि में- सम्यक्त्व से सर्वविरति तक का कथन सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद सर्वविरति से सिद्धगति का वर्णन आचार्य हरिभद्र ने जिनदीक्षाविधि के प्रसंग में ही किया है। जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्ररूपित दीक्षाविधि अपनी-अपनी परम्परानुसार चलती है, परन्तु वास्तव में वीतराग की वाणी में यही सिद्ध होता है कि दीक्षा लेने वाला व्यक्ति अपने गुरु के प्रति समर्पित होना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व-आरोपण-विधि उन्हें ही कराई जाती है, जो देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धावान् हो। जो शिष्य गुरु के प्रति समर्पित है, वह शिष्य ही परीक्षा में सही उतर सकता है, फिर उसकी विशेष परीक्षा करने की 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2/44 - पृ. - 34 402 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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