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________________ सुविहित आचार का परिपालन करने से प्रायः सभी कर्मों का क्षयोपशम होता है, अतः ज्ञानावरणादि घाति कर्मों का भी नाश होता है, जिससे नियमतः ज्ञान में वृद्धि होती है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण के जिनदीक्षाविधि पंचाशक में गुरुभक्ति में अभिवृद्धि के कारण को प्रकाशित करते हुए इक्तालीसवीं गाथा में कहा है गुरु कल्याण - सम्पदा के दाता हैं, अर्थात् दीक्षारूपी इहलौकिक एवं पारलौकिक सुख-सम्पदा को प्राप्त करने में निमित्तभूत हैं, क्योंकि दीक्षा - सम्बन्धी आचार-विचार का पालन गुरु के मार्गदर्शन से ही होता है, अतः गुरु महान् हैं, गुरु कृ पालु हैं, गुरु परोपकारी हैं- इस प्रकार गुरु की भक्ति अवश्य करना चाहिए । ऐसे सुचिन्तन व शुभ प्रवृत्ति से ही गुरुभक्ति में अभिवृद्धि होती है। इस प्रकार के गुणों में अभिवृद्धि होने के परिणामस्वरूप दीक्षा का प्रभाव व फल कैसा होता है ? इसका वर्णन आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण में प्रस्तुत किया है । जिनदीक्षा - विधि में बयालीसवीं गाथा में वे लिखते हैं इस प्रकार गुरुभक्ति आदि गुणों में अभिवृद्धि होने कारण महासत्वशाली दीक्षित शिष्य का कल्याण होता है। वह इन गुणों का सम्यक् प्रकार से आचरण करता हुआ क्रमशः उत्तरोत्तर अधिक विशुद्ध बनकर महाव्रतारोपणरूप छंदोपस्थापनचारित्र को भी प्राप्त कर लेता है, क्योंकि सर्वविरति के योग्य बनने पर ही छेदोपस्थापनचारित्ररूप बड़ी दीक्षा दी जाती है। शिष्य जब सामायिक - चारित्र में इन गुणों की वृद्धि कर लेता है, तो उसे सर्वविरति के योग्य मान लिया जाता है और बड़ी दीक्षा दे दी जाती है, अन्यथा उसे पुनः गृहस्थ-जीवन में भेजा जा सकता है, अतः गुरुभक्ति आदि गुणों में उत्तरोत्तर वृद्धि अवश्य करना चाहिए । आचार्य हरिभद्र ने सर्वविरतिचारित्र का महत्व तैंतालीसवीं गाथा में इस प्रकार से बताया है 2 पंचाशक - प्रकरण आचार्य हरिभद्रसूरि - 2/40 - पृ. - 33 3 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 2/41 - पृ. - 33 'पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 2 /42- पृ. 34 2 पंचाशक - प्रकरण आचार्य हरिभद्रसूरि - 2 /43 - पृ. - 34 Jain Education International - - For Personal & Private Use Only 401 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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