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________________ आचार्य हरिभद्र का कथन है कि यदि इस प्रकार की योग्यता जिस दीक्षित शिष्य में दिखलाई दे, उसे ही वास्तविक रूप में दीक्षित समझना चाहिए, अर्थात् उस दीक्षित की दीक्षा ही वास्तविक दीक्षा है। इन लक्षणों के अभाव में दीक्षित की दीक्षा मात्र दिखावा है, अर्थात् व्यर्थ है, अतः हर दीक्षित शिष्य को अपने गुणों में वृद्धि करना चाहिए। यह वृद्धि ही उसे क्रम से वीतराग अवस्था तक ले जाती है, जो संसार के दुःखों से मुक्ति और मोक्ष के परम सुख को प्राप्त करवाती है। ___ आचार्य हरिभद्र गुणों की वृद्धि के कारण को भी स्पष्ट करते हुए अड़तीसवीं गाथा में कहते हैं दीक्षा स्वीकार करने के परिशुद्ध भावों से भी कर्मों का क्षयोपशम होता है और यह कर्मों का क्षयोपशम ही पूर्व में प्राप्त किए हुए सम्यग्दर्शन आदि गुणों में वृद्धि करता हैं। चूंकि इन गुणों की वृद्धि का कारण विशुद्ध भाव ही है, अतः जहाँ कारण होगा, वहाँ कार्य अवश्य होगा ही। कार्य के अनुरूप का संयोग होते ही कार्य पूर्ण होता है। इसी बात को श्रीमद्देवचन्द्रजी ने स्वरचित चौवीसी में निरूपित किया हैजे-जे कारण जेहनूं रे, सामग्री संयोग। मिलतां कारज नीपज रे, कर्त्ता तणे प्रयोग।। जिस कार्य का जो कारण है, वह कारण तथा वैसी सामग्री प्राप्त होने पर कार्य की निष्पत्ति होती है। आचार्य हरिभद्र ने साधर्मिक-वात्सल्य की अभिवृद्धि के कारण को प्रतिपादित करते हुए उनचालीसवीं गाथा में कहा है कि दीक्षित होने की भावना वाले साधक में धर्म के प्रति अत्यन्त सम्मान के भाव होते हैं और वह साधर्मिकों की सेवा को महत्व देने वाला होता है। इसी कारण दीक्षित व्यक्ति में भी साधर्मिकों के प्रति स्नेहभाव की वृद्धि होती रहती है। आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की चालीसवीं गाथा में ज्ञान की अभिवृद्धि का हेतु बताया है 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/38 – पृ. 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/39 - पृ. 400 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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